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________________ जैन, बौद्ध तथा गीता के आधारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन अहिंसा महाव्रत - श्रमण को सर्वप्रथम स्व और पर की हिंसा से विरत होना होता है । काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि दूषित मनोवृत्तियों के द्वारा आत्मा के स्वगुणों का विनाश करना स्व-हिंसा है । दूसरे प्राणियों को पीड़ा एवं हानि पहुँचाना पर हिंसा है । श्रमण का पहला कर्तव्य स्व-हिंसा से विरत होना है । क्योंकि स्व-हिंसा से विरत हुए बिना पर की हिंसा से बचा नहीं जा सकता । श्रमण-साधक को जगत् के सभी त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा से भी विरत होना होता है । दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि भिक्षु जगत् में जितने भी प्राणी हैं उनकी हिंसा जान कर अथवा अनजान में न करे, न करावे और न हिंसा करनेवाले का अनुमोदन ही करे । भिक्षु प्राणवध क्यों न करे इसके प्रति उत्तर में कहा गया है कि हिंसा से, दूसरे के घात करने के विचार से, न केवल दूसरे को पीड़ा पहुँचती है बरन् उससे आत्मा-गुणों का भी घात होता है और आत्मा कर्म - मल से मलिन होती है । प्रश्नव्याकरणसूत्र में हिंसा का एक नाम गुणविराधिका भी वर्णित है | अहिंसा महाव्रत के परिपालन में श्रमण-जीवन और गृहस्थ जीवन में प्रमुख रूप से अंतर यह है कि जहाँ गृहस्थ साधक केवल त्रस प्राणियों की संकल्पी हिंसा का त्याग करता है, वहाँ श्रमण-साधक त्रस और स्थावर सभी प्राणियों की सभी प्रकार की हिंसा का त्यागी होता है । हिंसा के चार प्रकार - १. आरम्भी, २. उद्योगी, ३. विरोधी और ४. संकल्पी में से गृहस्थ केवल संकल्पी हिंसा का त्यागी होता है और श्रमण चारों ही प्रकार की हिंसा का त्यागी होता है । श्रमण-जीवन में अहिंसा महाव्रत का परिपालन किस प्रकार होना चाहिए इसकी संक्षिप्त रूपरेखा दशवैकालिकसूत्र में मिलती है । उसमें कहा गया है कि समाधिवंत संयमी साधु तीन करण एवं तीन योग से पृथ्वी आदि सचित्त मिट्टी के ढेले आदि न तोड़े, न उन्हें पीसे, सजीव पृथ्वी पर, एवं सचित्त धूलि से भरे हुए आसन पर नहीं बैठे; यदि उसे बैठना हो तो अचित्त भूमि पर आसन आदि को यतना से प्रमार्जित करके बैठे । संयमी साधु सचित्त जल, वर्षा, ओले, बर्फ और ओस के जल को भी नहीं पीवे, किन्तु जो तपा हुआ या सौवीर आदि अश्चित्त घोवन (पानी) को ही ग्रहण करे। किसी प्रकार को अग्नि को साधु उत्तेजित नहीं करे, छुए नहीं, सुलगावे नहीं तथा उसको बुझाये भी नहीं । इसी प्रकार साधु किसी प्रकार की हवा नहीं करे तथा गरम पानी, दूध या आहार आदि को फूंक से ठंढा भी न करे । साधु तृणों, वृक्षों तथा उनके फल, फूल, पत्ते आदि को तोड़े नहीं, काटे नहीं, लता - कुंजों में बैठे नहीं । इसी प्रकार साधु त्रस प्राणियों में भी किसी जीव की मन, वचन और काय से हिंसा न करे । पूर्णरूपेण हिंसा से बचने के लिए साधु को यही निर्देश दिया गया है कि वह प्रत्येक कार्य का संपादन करते समय जागृत रहे ताकि किसी प्रकार की हिंसा सम्भव न हो । १. दशवैकालिक, ६।१० ३३२ Jain Education International २. वही, ८१३ - १३ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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