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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
योग्यता के आधार पर किया गया है। आचरण के नियमों के आधार पर श्वेताम्बर परम्परा में दो प्रकार के साधु माने गये है।-(१) जिनकल्पी और (२) स्थविरकल्पी । जिनकल्पी मुनि सामान्यतया नग्न एवं पाणिपात्र होते हैं तथा एकाकी विहार करते हैं, जबकि स्थविरकल्पी मुनि सवस्त्र, सपात्र एवं संघ में रहकर साधना करते हैं । स्थानांगसूत्र में साधनात्मक योग्यता के आधार पर श्रमणों का वर्गीकरण इस प्रकार है--(१) पुलाक-जो श्रमण साधना की दृष्टि से पूर्ण पवित्रता को प्राप्त नहीं हुए हैं। (२) बकुश-वे जिन साधकों में थोड़ा कषाय भाव एवं आसक्ति होती है ।--(३) कुशीलजो साधु भिक्षु जीवन के प्राथमिक नियमों का पालन करते हुए भी द्वितीयिक नियमों का समुचितरूप से पालन नहीं करते हैं। ये सभी वास्तविक साधु जीवन से निम्न श्रेणी के साधक हैं। (४) निर्ग्रन्थ-जिनकी मोह और कषाय की ग्रन्थियां क्षीण हो चुकी हैं । (५) स्नातक-जिनके समग्र घाती कर्म क्षय हो चुके हैं । ये दोनों उच्चकोटि के श्रमण हैं । वैदिक परम्परा में संन्यासियों के प्रकार
महाभारत में संन्यासियों के ४ प्रकार वणित हैं---१. कुटीचक, २. बहूदक, ३. हंस और ४. परमहंस ।3 (१) कुटीचक संन्यासी अपने गृह में ही संन्यास धारण करता है तथा अपने पुत्रों द्वारा निर्मित कुटिया में रहते हुए उन्हीं की भिक्षा को ग्रहण कर साधना करता है। (२) बहूदक संन्यासी त्रिदण्ड, कमण्डलु एवं कषायवस्त्रों से युक्त होते हैं तथा सात ब्राह्मण घरों से भिक्षा मांगकर जीवन यापन करते हैं । (३) हंस संन्यासी ग्राम में एक रात्रि तथा नगर में ५ रात्रियों से अधिक नहीं बिताते हुए उपवास एवं चान्द्रायण व्रत करते रहते हैं । (४) परमहंस संन्यासी सदैव ही पेड़ के नीचे शून्यगृह या श्मशान में निवास करते हैं। सामान्यतया वे नग्न रहते हैं तथा सदैव ही आत्मभाव में रत रहते हैं।
तुलनात्मक दृष्टि से विचार करते हुए जैन परम्परा के जिनकल्पी मुनि को परमहंस या अवधूत श्रेणी का माना जा सकता है तथा संन्यासियों के अन्य प्रकार की तुलना स्थविरकल्पी मुनियों से की जा सकती है। जैन श्रमण के मूलगुण
जैन-परम्परा में श्रमण-जीवन की कुछ आवश्यक योग्यताएँ मानी हैं जिन्हें मूलगुणों के नाम से जाना जाता है ।" दिगम्बर परम्परा के मूलाचार सूत्र में श्रमण के २८
१. विशेषावश्यक भाष्यवृति, ७। ३. महाभारत अनुपर्व, १४१।८९ । ५. मूलाचार, ११२-३; तत्त्वार्थ०, ९।४८ ।
२. स्थानांग सूत्र, ५।३।४४५ । ४. तुलनीय-श्रमणभूत प्रतिमा ।
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