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इस ग्रन्थ में विचारार्थ जितने विषयों का समावेश किया गया है, उनका प्रस्थान बिन्दु है-जैन धर्म-दर्शन । उसे मुख्यता प्रदान कर बौद्ध मान्यताओं और गीता के साथ तुलनात्मक अध्ययन किया गया है। इस स्थिति में प्रस्तावित विचारों को जैनदृष्टि की पूर्व मान्यताओं ने प्रभावित किया है । इस ग्रन्थ की यह एक स्वाभाविक सीमा है। किन्तु इन प्रतिबद्धताओं के बीच कुछ ऐसे प्रश्न उठते हैं, जिनकी ओर विद्वानों का ध्यान जाना चाहिए।
प्राचीन भारतीय दर्शनों की प्रतिबद्धता है-नित्यवाद । बौद्धदर्शन एक प्रकार से इसका अपवाद है। नित्यवादी दृष्टि का एक भरा-पूरा परिवार होता है, जिसमें आत्मवादी एवं ईश्वरवादी मान्यताएँ भी होती हैं। इस मान्यता के अनुसार नित्य आत्मा ही मनुष्य का अपना स्वभाव है । रागद्वेष आदि कषायों के कारण वह स्वभावच्युत या केन्द्रच्युत है। समत्व आत्मा का स्वरूप है। इस सत्य का ज्ञान न होने से ही वह बाह्य विषमताओं से प्रभावित होकर अनेकानेक द्वन्द्वों के बीच उलझा रहता है । नीति की चरितार्थता इसमें है कि वह द्वन्द्वों, विषमताओं से जनित संघर्षों से बचाकर व्यक्ति को आत्मसमता में यथावत् प्रतिष्ठित कर दे। इस पूरी मान्यता की पृष्ठभूमि में यदि यह प्रश्न किया जाए कि नैतिक मूल्यों का उत्स क्या है ? तो इसका सहज उत्तर होगा-समत्व प्राप्त करना अर्थात् आत्मा की शुद्ध दशा को प्राप्त कर लेना । इसीलिए वे व्यवहार नैतिक कहे जाएंगे, जो आत्मसमता प्राप्त करा दें। द्वन्द्वों के जगत् में रहने वाला व्यक्ति क्यों आत्मसमता की प्राप्ति के लिए प्रेरित होगा ? इस प्रश्न का आत्मसमतावादी उत्तर है कि व्यक्ति का मूलभूत स्वभाव यतः आत्मसमता है, अतः अपने स्वभावगत साम्यावस्था की दशा में जाने के लिए वह चेष्टा करता है । यदि यह प्रश्न किया जाए कि आपके उपर्युक्त कथन की प्रामाणिकता का आधार क्या है ? तो उत्तर होगा सम्यग्ज्ञान । ज्ञान के सम्यक्त्व के निर्धारण का आधार है सत्य । सत्य क्या है ? आत्मसमता । आत्मा ध्रुव सत्य है, जो न साध्य है और न साधन । प्रश्नोत्तर का वह चक्रक नित्यवाद के विश्वास बिन्दु के चारों ओर घूमता रहता है । इन पूरी प्रतिज्ञाओं का निरीक्षण या प्रामाण्य सामाजिक एवं व्यावहारिक भूमि पर सम्भव नहीं है। ___ स्पष्ट है कि नीतिगत प्रश्न सामाजिक एवं धार्मिक है, जिसे व्यवहार एवं तर्क की कोटि में आना चाहिए। इसीलिए विषमताओं और द्वन्द्वों के बीच उसकी वरणीयता एवं वरीयता का निर्धारण करना होता है । उसका उत्स समाज है और उसका आदर्श भी सामाजिक मान्यताएं ही हैं, जिनकी समाज में श्रेष्ठता स्वीकार की गई है । ये सब परिवर्तनशील परिस्थियियों और अपेक्षाओं में उत्पन्न होते हैं और उन्हीं के द्वारा अच्छे या बुरे निर्धारित भी होते हैं । नैतिक और सामाजिक मूल्यों की तात्त्विकता का अर्थ मात्र इतना ही है कि वह छोटे-छोटे स्वार्थों से प्रेरित एवं तात्कालिक नहीं है।
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