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________________ गृहस्थ धम २८५ मर्यादा, जैसे पहाड़ की अमुक ऊँचाई तक (वर्तमान सन्दर्भ में ग्रह, नक्षत्र आदि पर जाने की सीमा मर्यादा)। (२) अघोविशा-नीचे की ओर, जैसे खदान आदि में अमुक गहराई तक जाने की सीमा मर्यादा । (३) तिर्यक दिशा-पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण और उनके कोणों में गमनागमन की मर्यादा । उपर्युक्त दिशाओं के सम्बन्ध में गृहस्थ साधक अपनी परिस्थिति के अनुसार जो भी सीमाएँ निश्चित करता है, उनका अतिक्रमण कर उस क्षेत्र के अर्थोपार्जन एवं अन्य पाप प्रवृत्तियों का सेवन करना व्रतभंग माना जाता है, लेकिन यदि यह सीमातिक्रमण अज्ञान या असावधानी से हो तो व्रतभंग नहीं होता, यद्यपि वह व्रत दूषित अवश्य हो जाता है। इस व्रत के पाँच अतिचार हैं--(१) उर्ध्व दिशा, (२) अधोदिशा और (३) तिर्यक् दिशाओं की मर्यादाओं का अतिक्रमण, (४) मार्ग में चलते हुए यदि शंका उपस्थित हो जाए कि मैं अपनी मर्यादा से अधिक अधिक आ गया तो पुनः उस शंकित अवस्था में ही उस दिशा में आगे जाना. (५) एक दिशा की सीमा-मर्यादा को घटाकर दूसरी दिशा की सीमा मर्यादा बढ़ान । उदाहरणार्थ पूर्व दिशा में ५० कोस से अधिक बाहर जाकर धनोपार्जन की कोई सम्भावनाएँ नहीं है अतएव पूर्व के शेष ५० कोस और पश्चिम दिशा के १०० कोस मिलाकर पश्चिम में १५० कोस तक जाकर धनोपार्जन करना । साधक अपने व्रत को शुद्ध रूप में परिपालन करने के लिए उपरोक्त दोषों से बचता रहे, यही अपेक्षित है । ७. उपभोग-परिभोगपरिमाणवत साधनात्मक गृही-जीवन के लिए भी यह आवश्यक है कि साधक वैयक्तिक रूप से अपने जीवन की दैनिक क्रियाओं जैसे आहार-विहार अथवा भोगोपभोग पर संयम रखें। जैन-परम्परा इस सन्दर्भ में अत्याधिक सतर्क है। उसमें गृहस्थ जीवन की दिनचर्या की नितांत छोटी छोटी बातों में भी संयममूलक व्यवहार को प्रकटित करने का पूरा प्रयास किया गया है। वह गृहस्थ-साधक की भोजन और पानी की मात्रा ही निश्चित करने का प्रयास नहीं करती, वरन् उनमें विविधता की सीमा निश्चित करने का भी प्रयास करती है। व्रती गृहस्थ स्नान के लिए कितने जल का उपयोग करेगा, किस वस्त्र से अंग पोछेगा, यह भी निश्चित करना होता है । उपभोग परिभोग व्रत में गृहस्थ साधक दैनिक जीवन के व्यवहार की वस्तुओं की मात्रा और प्रकार निश्चित करता है। उपभोग के अन्तर्गत वे वस्तुएँ समाविष्ट होती हैं, जिनका एक ही बार उपयोग किया जा सके, जैसे भोजन, पानी आदि। परिभोग के अन्तर्गत बे वस्तुएँ आती हैं जिनका उपयोग १. उपासकदशांग ११४६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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