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एवं पुराणों को स्पर्श करती हुई गुजरती है । उनकी दृष्टि में भारतीय संस्कृति के अध्ययन की मात्र इतनी ही इयत्ता है । फलतः इतने मात्र से वे अपने को कृतकृत्य और अपने अध्ययन को परिपूर्ण मान लेते हैं । पालि और प्राकृतों के बीच बहुजन भारतीय समाज का हजारों-हजार वर्षों का सांस्कृतिक वैभव सुरक्षित है । उसके माध्यम से ही विश्व के गोलार्ध तक भारतीयों का मानवीय सन्देश पहुँच सका था । अध्ययन एवं अनुसंधान के क्षेत्र में भी उन धाराओं के प्रति उपेक्षा की वृत्ति कितनी आत्मघाती है, यह कहने की बात नहीं है । इस परिप्रेक्ष्य में लेखक ने जैन, बौद्ध और गीता के अध्ययन में भारतीय संस्कृति के त्रिविध स्रोतों का प्रत्यक्षतः उपयोग कर भारतीय आचार दर्शन की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि का पूरा ध्यान रखते हुए प्रामाणिकता के साथ गम्भीर तथ्यों को उजागर किया है । यही उनके ग्रन्थ की विशेषता है ।
डॉ० जैन पाश्चात्य नीतिशास्त्र के सफल अध्यापक रहे हैं, इसलिए उन्होंने जगहजगह पर नीति सम्बन्धी उन प्रमुख प्रश्नों को भी स्थान दिया है जिनका समाधान एवं विवेचन नई पाश्चात्य पद्धति को ध्यान में रखकर प्राचीन भारतीय शास्त्रों के सन्दर्भ में होना चाहिए था । वस्तुतः इस दिशा में उनके विश्लेषण और निष्कर्ष उनके गम्भीर अध्ययन और चिन्तन के परिणाम हैं । इस ग्रन्थ के सम्पूर्ण वक्तव्य का प्रमुख केन्द्रबिन्दु समता या समत्वयोग है, जिससे अनुप्राणित इनके समस्त विश्लेषण और निष्कर्ष हैं, जिनका आवश्यक सन्निवेश ग्रन्थ में किया गया है । समतामूलक आचारपक्ष की प्रामाणिकता के लिए यह आवश्यक था कि सम्यक्त्व क्या है ? और उसके निर्धारक तत्त्व क्या हैं ? उनका विवेचन किया जाए । मिथ्या, भ्रम या अन्धविश्वास से सम्यक्त्व को व्यावृत्त करने के लिए यह भी अनिवार्य हो जाता है कि एक ओर तो मिथ्या दृष्टियों का वर्गीकरण एवं विश्लेषण हो और दूसरी ओर सम्यक्त्व का सत्य की अवधारणा के साथ जो अकाट्य सम्बन्ध है, उसका स्पष्टीकरण किया जाए । सम्यक्त्व का सत्य के साथ जैसे अविसंवाद आवश्यक है, वैसे ही सम्यक्त्व के कारण या साधनों की विशुद्धि और उनकी तथ्यात्मकता के साथ सुसंगति का भी घनिष्ठ सम्बन्ध है । इस दिशा में तपस् और योग-साधना का विश्लेषण एवं परीक्षण आवश्यक हो जाता है । लेखक ने बड़ी कुशलता से इन मूलभूत मुद्दों पर जैन, बौद्ध तथा गीता के दार्शनिक निष्कर्ष प्रस्तुत किये हैं ।
मूलतः नीति का प्रश्न आध्यात्मिक या भावात्मक नहीं है, अपितु सामाजिक एवं व्यावहारिक है । कम से कम उसकी परीक्षा की भूमि अवश्य ही समाज है । भारतीय संस्कृति के वैराग्यवाद के सम्बन्ध में ऐसी धारणा बन गई है कि वैराग्यवाद का पर्यवसान सामाजिक समस्याओं से पलायन में होता है । यद्यपि यह आक्षेप सम्पूर्ण भारतीय जीवन दृष्टियों पर है, तथापि विशेषकर श्रमणधाराओं और वेदान्त पर इसका समर्थन आधुनिक विचारकों द्वारा भी किया गया है । भारतीय नीति एवं आचार-दर्शन के
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