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अध्याय : १८
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आध्यात्मिक एवं नैतिक विकास ४४६-४९१
अतमा की तीन अवस्थाएँ (४४६); बहिरात्मा (४४७); अन्तरात्मा (४४७ ) ; परमात्मा (४४८); आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया और ग्रन्थि-भेद ( ४५० ) ; यथाप्रवृत्तिकरण ( ४५० ); अपूर्वकरण ( ४५२); अनावृत्तिकरण; ( ४५३ ); ग्रन्थिभेद की प्रक्रिया का द्विविध रूप ( ४५४ ) ; गुणस्थान का सिद्धान्त (४५४); मिथ्यात्व गुणस्थान ( ४५५ ) ; सास्वादन गुणस्थान (४५६); सम्यक् - मिथ्यादृष्टि गुणस्थान या मिश्र गुणस्थान ( ४५७ ) ; अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान ( ४५९ ) ; देशविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान ( ४६१ ); प्रमत्त सर्वविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान ( ४६२ ) ; अप्रमत्त - संयत गुणस्थान (४६३); अपूर्वकरण ( ४६४ ) ; अनावृत्तिकरण - बादर सम्पराय गुणस्थान (४६६ ) ; सूक्ष्म सम्पराय ( ४६६ ) ; उपशान्त मोह गुणस्थान ( ४६७ ); क्षीण मोह गुणस्थान (३६८ ) ; सयोगी - केवली गुणस्थान ( ४६९); अयोगी के वली गुणस्थान ( ४७० ); बौद्ध साधना में आध्यात्मिक विकास की भूमियाँ ( ४७१ ); हीनयान और आध्यात्मिक विकास ( ४७१ ) ; स्रोतापन्न भूमि (४७२); सकृदागामी भूमि (४७३ ); दीप्रादृष्टि और प्राणायाम ( ४९० ); स्थिरादृष्टि और प्रत्याहार ( ४९० ) ; कान्तादृष्टि और धारणा ( ४९१ ); प्रभादृष्टि और ध्यान ( ४९१ ); परादृष्टि और समाधि ( ४९१ ); योगबिन्दु में आध्यात्मिक विकास ( ४९१ ) ।
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उपसंहार
अध्याय १९ : महावीर युग की आचार-दर्शन सम्बन्धी समस्याएँ और जैन दृष्टिकोण ( ४९२ ) ; नैतिकता की विभिन्न धारणाओं का समन्वय ( ४९२); नैतिकता के बहिर्मुखी एवं अन्तर्मुखी दृष्टिकोणों का समन्वय ( ४९३ ) ; मानव मात्र की समानता का उद्घोष ( ४९४ ) ; ईश्वरवाद से मुक्ति ( ४९४ ) ; रूढ़िवाद से मुक्ति ( ४९४ ) ; यज्ञ का नया अर्थ ( ४९५ ) ; तत्कालीन अन्य नैतिकता सम्बन्धी विचारों के प्रति नया दृष्टिकोण (४९७); समकालीन परिस्थितियों में जैन आचार दर्शन का मूल्यांकन ( ४९८ ); सामाजिक विषमता ( ४९८ ); आर्थिक वैषम्य (५००); वैचारिक वैषम्य (५०२); मानसिक वैषम्य (५०२ ); मानसिक वैषम्य - निराकरण के सूत्र (५०३ ) ; वर्तमान युग में नैतिकता की जीवन-दृष्टि (५०४ ); अनासक्त जीवन-दृष्टि का निर्माण (५०७ ) ।
४९२-५०७
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