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जैन, बौद्ध और गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
वैयक्तिक है किन्तु अपरिग्रह का प्रश्न केवल वैयक्तिक नहीं, सामाजिक भी है। परिग्रह (सम्पदा) के अर्जन, संग्रह और विसर्जन सभी सीधे-सीधे समाज जीवन को प्रभावित करते हैं । अर्जन सामाजिक आर्थिक प्रगति को प्रभावित करता है तो संग्रह अर्थ के समवितरण को प्रभावित करता है । मात्र यही नहीं अर्थ का विसर्जन भी लोककल्याणकारी प्रवृत्तियों को प्रभावित करता है । अतः परिग्रह के अर्जन, उपभोग, संग्रह और विसर्जन के प्रश्न पूरी तरह सामाजिक प्रश्न हैं।
समाज की आर्थिक प्रगति उसके सदस्यों की सम्पदा के अर्जन की आकांक्षा और श्रम निष्ठा पर निर्भर करती है । नैतिक दृष्टि से अर्थोपार्जन की प्रवृत्ति और श्रमनिष्ठा आलोच्य नहीं रही है। यह भय निरर्थक है कि अनासक्ति और अपरिग्रह से आर्थिक प्रगति अवरुद्ध होगी । अपरिग्रह का सिद्धान्त अर्थ के अर्जन का वहाँ तक विरोधी नहीं है जहाँ तक उसके साथ शोषण की दुष्प्रवृत्ति नहीं जुड़ती है। सम्पदा के अर्जन के साथ जब हिंसा शोषण और संग्रह को बुराइयाँ जुड़ती हैं तभी वह अनैतिक बनता है अन्यथा नहीं । भारतीय आर्थिक आदर्श रहा है 'शत हस्त समाहर सहस्र हस्त विकीर्ण' अर्थात् सौ हाथों से इकट्ठा करो और सहस्र हाथों से बाँट दो। आर्थिक संघर्षो का जन्म तव होता है जब सम्पदा का वितरण विषम और उपभोग अनियन्त्रित होता है । संग्रह और शोषण को दुष्प्रवृत्तियों के परिणामस्वरूप जब एक ओर मानवता रोटी के टुकड़ों के अभाव की पीड़ा में सिसकती हो और दूसरी ओर ऐशो-आराम की रंगरेलियाँ चलती हों तब ही वर्ग-संघर्ष का जन्म होता है और सामाजिक शान्ति भंग होती है ।
समाज-जीवन में शान्ति तभी सम्भव है, जब सम्पदा का उपभोग, संग्रह और वित. रण नियन्त्रित हो। अपरिग्रह का सिद्धान्त इसी प्रश्न को लेकर हमारे सामने उपस्थित होता है। जहाँ तक सम्पदा के अनियन्त्रित उपभोग और संग्रह का प्रश्न है, जैन धर्म गृहस्थ उपासक के उपभोग-परिभोगपरिसीमन और अनर्थदण्डविरमणव्रत के द्वारा उन पर नियन्त्रण लगाता है। किन्तु परिग्रह के विषम वितरण के लिए जो परिग्रहपरिसीमन का व्रत प्रस्तुत किया गया है उसको लेकर कुछ प्रश्न उभरते हैं-प्रथम तो यह कि किसी व्यक्ति के परिग्रह की परिसीमा या मर्यादा क्या होगी? कितना परिग्रह रखना उचित माना जायगा और कितना अनुचित । दूसरे परिग्रह की इस परिसीमा का निर्धारण कौन करेगा-व्यक्ति या समाज । इन प्रश्नों को लेकर डॉ. कमलचन्द सोगाणी ने अपने एक लेख में विचार किया है। जैन आचार्यों ने इन प्रश्नों को खुला छोड़ दिया था, उन्होंने यह मान लिया था कि व्यक्ति कितना परिग्रह रखे और कितना त्याग दे यह उसकी आवश्यकता और उसके स्वविवेक पर निर्भर करेगा। क्योंकि प्रत्येक की आवश्यकताएं भिन्नभिन्न है। एक उद्योगपति की आवश्यकताएँ और एक प्रोफेसर की आवश्यकताएं निश्चित १. देखें-तीर्थंकर, मई १९७७, पृ० ७-९.
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