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________________ सामाजिक नैतिकता के केन्द्रीय तत्त्व : अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह २३९ भेद भी है । जहाँ जैन-दर्शन के अनुसार अनासक्त होने के लिए अपरिग्रही होना आवश्यक है, वहाँ गीता और बौद्ध दर्शन यह नहीं मानते हैं कि अनासक्त होने के लिए अपरिग्रही होना आवश्यक नहीं है । जैन दर्शन के अनुसार अनासक्त जीवन दृष्टि का प्रमाण यही है कि व्यक्ति का बाह्यजीवन सर्वथा अपरिग्रही हो । परिग्रह का होना स्पष्टतया इस बात का सूचक है कि व्यक्ति में अभी अनासक्ति का पूर्ण विकास नहीं हुआ है। यही कारण है कि जैनधर्म की दिगम्बर परम्परा मुक्ति के लिए बाह्य परिग्रह का पूर्णतया त्याग आवश्यक मानती है । यद्यपि श्वेताम्बर परम्परा यह मानती है कि पूर्ण अनासक्त वृत्ति का उदय तो बिना परिग्रह का पूर्ण त्याग किये भी हो सकता है, किन्तु वह भी इतना तो अवश्य मानती ही है कि अनासक्ति का पूर्ण प्रकटन होने पर व्यक्ति बाह्य परिग्रह में उलझा हुआ नहीं रहता है, वह उसका परित्याग कर मुनि बन जाता है । दोनों में अन्तर मात्र यही है कि प्रथम के अनुसार बाह्य परिग्रह का त्याग होने पर ही कैवल्य की प्राप्ति होती है तो दूसरे के अनुसार बाह्य परिग्रह का त्याग होने के पूर्व भी कैवल्य हो सकता है। यद्यपि कैवल्यलाभ के बाद दोनों के ही अनुसार व्यक्ति सर्वथा अपरिग्रही हो ही जाता है। गीता के अनुसार, अनासक्त वृत्ति के लिए परिग्रहत्याग आवश्यक नहीं है । वैदिक परम्परा के जनक पूर्ण अनासक्त होते हुए भी राजकाज का संचालन करते रहते हैं, जबकि जैन परम्परा का भरत पूर्ण अनासक्ति के आते ही राजकाज छोड़कर मुनि बन जाता है । अनासक्ति और अपरिग्रह के संदर्भ में जैन परम्परा विचारपक्ष और आचारपक्ष की एकरूपता पर जितना बल देती है उतना वैदिक परम्परा नहीं। वैदिक परम्परा के अनुसार अन्तस् में अनासक्ति और बाह्य जीवन में परिग्रह दोनों एक साथ सम्भव हैं। इस सम्बन्ध में बौद्ध धर्म का दृष्टिकोण भी जैन परम्परा के अधिक निकट है । फिर भी उसे जैन और वैदिक परम्पराओं के मध्य रखना ही उचित होगा। जैन धर्म ने जहाँ मुनिजीवन के लिए परिग्रह के पूर्ण त्याग और गृहस्थ जीवन में परिग्रह-परिसीमन की अवधारणा प्रस्तुत की, वहाँ बौद्ध धर्म ने केवल भिक्षु के लिए स्वर्ण-रजतरूप परिग्रह त्याग की अवधारणा प्रस्तुत की। उसमें गृहस्थ के लिए परिग्रह परिसीमन का प्रश्न नहीं उठाया गया है। गीता और वैदिक परम्परा यद्यपि संचय और परिग्रह की निन्दा करती है फिर भी वे परिग्रहत्याग को अनिवार्य नहीं बताती हैं । अनासक्ति और अपरिग्रह को लेकर तीनों परम्पराओं में यही मूलभूत अन्तर है । वस्तुतः अनासक्ति का अर्थ है-ममत्व का विसर्जन । समत्व-चाहे वह वैयक्तिक हो या सामाजिक-के सर्जन के लिए ममत्व का विसर्जन आवश्यक है । अनासक्ति और अपरिग्रह में एक ही अन्तर है, वह यह कि अपरिग्रह में ममत्व के विसर्जन के साथ ही सम्पदा का विसर्जन भी आवश्यक है। अनासक्ति, अमूर्छा या अलोभ का प्रश्न निरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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