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________________ सामाजिक नैतिकता के केन्द्रीय तत्व : अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह २३५ वस्तुओं का अपहरण करता है । इस प्रकार आसक्ति बाह्यतः तीन रूपों में होती है— १. अपहरण ( शोषण ), २. भोग और ३. संग्रह । आसक्ति के तीन रूपों का निग्रह करने के लिए जैन आचारदर्शन में अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह महाव्रतों का विधान है । संग्रह वृत्ति का अपरिग्रह से, भोगवृत्ति का ब्रह्मचर्य से और अपहरणवृत्ति का अस्तेय महाव्रत से निग्रह होता है । उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार समग्र जागतिक दुःखों का मूल कारण तृष्णा हैं । कहा गया है— जिसकी तृष्णा समाप्त हो जाती है उसका मोह समाप्त हो जाता है और जिसका मोह मिट जाता है उसके दुःख भी समाप्त हो जाते हैं ।" आसक्ति का ही दूसरा नाम लोभ है और लोभ समग्र सद्गुणों का विनाशक है ।" जैन विचारणा के अनुसार तृष्णा एक ऐसी खाई है जो कभी भी पाटी नहीं जा सकती । दुष्पूर तृष्णा का कभी अन्त नहीं आता । उत्तराध्ययनसूत्र में इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि यदि सोने और चाँदी के कैलाश पर्वत के समान असंख्य पर्वत भी खड़े कर दिये जायें तो भी यह दुष्पूर्य तृष्णा शान्त नहीं हो सकती, क्योंकि धन चाहे कितना भी हो, वह सीमित है और तृष्णा अनन्त (असीम ) है, अतः सीमित साधनों से इस असीम तृष्णा की पूर्ति नहीं की जा सकती 13 किन्तु जब तक तृष्णा शान्त नहीं होती, तब तक दुःखों से मुक्ति भी नहीं होती । सूत्रकृतांग के अनुसार मनुष्य जब तक किसी भी प्रकार की आसक्ति रखता है वह दुःख से मुक्त नहीं हो सकता । * यदि हम अधिक स्पष्ट शब्दों में कहें तो जैन दार्शनिकों की दृष्टि में तृष्णा या आसक्ति दुःख का पर्यायवाची ही बन गयी है । यह तृष्णा या आसक्ति ही परिग्रह ( संग्रहवृत्ति) का मूल है । आसक्ति ही परिग्रह है ।" जैन आचार्यों ने जिस अपरिग्रह के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया उसके मूल में यही अनासक्ति - प्रधान दृष्टि कार्य कर रही है । यद्यपि आसक्ति एक मानसिक तथ्य है, मन की ही एक वृत्ति है, तथापि उसका प्रकटन बाह्य है और उसका सीधा सम्बन्ध बाह्य वस्तुओं से है । वह सामाजिक जीवन को दूषित करती है । अतः आसक्ति के प्रहाण के लिए व्यावहारिक रूप में परिग्रह का त्याग भी आवश्यक है । परिग्रह या संग्रहवृत्ति सामाजिक हिंसा है । जैन आचार्यों की दृष्टि में समग्र परिग्रह हिंसा से प्रत्युत्पन्न है । क्योंकि बिना हिंसा ( शोषण) के संग्रह असम्भव है । व्यक्ति संग्रह के द्वारा दूसरों के हितों का हनन करता है और इस रूप में संग्रह या परिग्रह हिंसा का ही एक रूप है । वह हिंसा या शोषण का जनक है । अनासक्ति को जीवन में उतारने के लिए जैन आचार्यों ने यह आवश्यक माना कि मनुष्य बाह्य परिग्रह का भी त्याग १. उत्तराध्ययन, ३२१८. ३. उत्तराध्ययन, ९१४८. ५. दशवैकालिक, ६।२१. Jain Education International २. दशर्वकालिक, ८ ३८. ४. सूत्रकृतांग, १।१।२. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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