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________________ सामाजिक नैतिकता के केन्द्रीय तत्त्व : अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह २३१ सता और रक्तप्लावन को धर्म का बाना पहनाया गया । शान्ति प्रदाता धर्म ही अशान्ति का कारण बना। आज के वैज्ञानिक युग में धार्मिक अनास्था का एक मुख्य कारण यह भी है । यद्यपि विभिन्न मतों, पंथों और वादों में बाह्य भिन्नता परिलक्षित होती है किन्तु यदि हमारी दृष्टि व्यापक और अनाग्रही हो तो इसमें भी एकता और समन्वय के सूत्र परिलक्षित हो सकते हैं । अनेकान्त विचार दृष्टि विभिन्न धर्म सम्प्रदायों की समाप्ति के द्वारा एकता का प्रयास नहीं करती है क्योंकि वैयक्तिक रुचिभेद एवं क्षमताभेद तथा देशकालगत भिन्नताओं के होते हुए विभिन्न धर्म एवं विचार सम्प्रदायों की उपस्थिति अपरिहार्यं है । एक धर्म या एक सम्प्रदाय का नारा असंगत एवं अव्यावहारिक ही नहीं अपितु अशान्ति और संघर्ष का कारण भी है । अनेकान्त, विभिन्न धर्म सम्प्रदायों की समाप्ति का प्रयास नहीं होकर उन्हें एक व्यापक पूर्णता में सुसंगत रूप से संयोजित करने का प्रयास हो सकता है । लेकिन इसके लिए प्राथमिक आवश्यकता है धार्मिक सहिष्णुता और सर्वधर्म समभाव की । अनेकान्त के समर्थक जैनाचार्यों ने सदैव धार्मिक सहिष्णुता का परिचय दिया है । आचार्य हरिभद्र की धार्मिक सहिष्णुता तो सर्वविदित ही है । अपने ग्रन्थ शास्त्रवार्ता समुच्चय में उन्होंने बुद्ध के अनात्मवाद और न्यायदर्शन के ईश्वरकर्तृत्ववाद, वेदान्त सर्वात्मवाद (ब्रह्मवाद) में भी संगति दिखाने का प्रयास किया । उनकी समन्वय - वादी दृष्टि का संकेत हम पूर्व में कर चुके हैं । इस प्रकार आचार्य हेमचन्द्र ने भी शिव प्रतिमा को प्रणाम करते समय सर्वदेवसमभाव का परिचय देते हुए कहा था भवबीजांकुर जनना, रागाद्याक्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो, जिनो वा नमस्तस्मै । संसार परिभ्रमण के कारण रागादि जिसके क्षय हो चुके हैं, उसे मैं प्रणाम करता हूँ चाहे वह ब्रह्मा हो, विष्णु हो, शिव हो या जिन हो । उपाध्याय यशोविजय जी लिखते हैं "" 'सच्चा अनेकान्तवादी किसी दर्शन से द्वेष नहीं करता । वह सम्पूर्ण दृष्टिकोण ( दर्शनों) को इस प्रकार वात्सल्य दृष्टि से देखता है जैसे कोई पिता अपने पुत्रों को । क्योंकि अनेकान्तवादी की न्यूनाधिक बुद्धि नहीं हो सकती । वास्तव में सच्चा शास्त्रज्ञ कहे जाने का अधिकारी वही है जो स्याद्वाद का आलम्बन लेकर सम्पूर्ण दर्शनों में समान भाव रखता है । माध्यस्थ भाव ही शास्त्रों का गूढ़ रहस्य है, यही धर्मवाद है । माध्यस्य भाव रहने पर शास्त्र के एक पद का ज्ञान भी सफल है, अन्यथा करोड़ों शास्त्रों का ज्ञान भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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