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के हेतु जाने का निषिद्ध काल (३५५); भिक्षा की गमनविधि (३५५); आदान-भाण्ड निक्षेपण समिति (३५५); मलमूत्रादि प्रतिस्थापना समिति (३५६); परिहार के हेतु निषिद्ध स्थान (३५६); बौद्ध परम्परा और पांच समितियाँ (३५६). वैदिक परम्परा और पाँच समितियाँ (३५७); इन्द्रियसंयम (३५८); बौद्ध एवं वैदिक परम्परा में इन्द्रियनिग्रह (३५९); परीषह (३५९); बौद्ध परम्परा और परीषह (३६२); वैदिक परम्परा और परीषह (३६२); कल्प (३६३); बौद्ध परम्परा और कल्पविधान (३६५): वैदिक परम्परा और कल्पविधान (३३६); जैन परम्परा में भिक्षु-जीवन के सामान्य नियम (३६७); शबल दोष (३६७); अनाचीर्ण (३६८); समाचारी के नियम (३६९); दिनचर्या सम्बन्धी नियम (३७०); आहार सम्बन्धी नियम (३७०); आहार ग्रहण करने के छः कारण (३७०-३७१); आहार-त्याग के ६ कारण (३७१); आहार सम्बन्धी दोष (३७१); उद्गम के १६ दोष (३७१); उत्पादन के १६ दोष (३७१); ग्रहणषणा के १० दोष (३७२); ग्रासैषणा के ५ दोष (३७२); वस्त्र मर्यादा (३७२); आवास सम्बन्धी नियम (३७३); जैन भिक्षु-जीवन के सामान्य नियमों की बौद्ध नियमों से तुलना (३७३); संघ व्यवस्था (३७४); बौद्ध एवं जैन संघ-व्यवस्था में अन्तर (३७५); भिक्षुओं के पारस्परिक सम्बन्ध (३७६); जैन और बौद्ध परम्परा में श्रमणी-संघ व्यवस्था (३७७); भिक्षु एवं भिक्षुणी के पारस्परिक संबंध (३७८); भिक्षुणीसंघ के पदाधिकारी (३७९); प्रायश्चित्त विधान ( दण्ड व्यवस्था ) (३७९); लघुमासिक के योग्य अपराध (३८०); गुरुमासिक योग्य अपराध (३८०); लघुचातुर्मासिक के योग्य अपराध (३८०); गुरुचातुर्मासिक के योग्य अपराध (३८१); बौद्ध परम्परा में में प्रायश्चित्त विधान (३८२); आदर्श जैन श्रमण का स्वरूप (३८४); बौद्ध परम्परा में आदर्श श्रमण का स्वरूप (३८७); जैन श्रमणाचार पर आक्षेप और उनका उत्तर (३८७)।
अध्याय १७ जैन आचार के नियम ३२५-३८७
षट् आवश्यक कर्म (३९२); सामायिक [समता] (३९३); स्तवन [भक्ति] (३९४); वन्दन (३९७); प्रतिकमण (३९९); प्रतिक्रमण किसका (४००); प्रतिक्रमण और महावीर (४०१); बौद्ध परम्परा और प्रतिक्रमण (४०२); वैदिक तथा अन्य धर्म परम्पराएं और प्रतिक्रमण (४०३); कायोत्सर्ग (४०४); कायोत्सर्ग के प्रकार (४०५); कायोत्सर्ग के दोष (४०५); बौद्ध परम्परा में कायोत्सर्ग (४०५); गीता में कायोत्सर्ग
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