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________________ सामाजिक नैतिकता के केन्द्रीय तत्व : अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह २११ " यद्यपि शरीरधारी रहते हुए पूर्ण अहिंसा एक आदर्श ही रहेगी, वह यथार्थ नहीं बन पावेगी । जब शरीर के संरक्षण का मोह समाप्त होगा तभी वह आदर्श यथार्थ की भूमि पर अवतरित होगा । फिर भी एक बात ध्यान में रखनी होगी, वह यह कि जब तक शरीर है और शरीर के संरक्षण की वृत्ति है, चाहे वह साधना के लिए ही क्यों न हो, यह कथमपि सम्भव नहीं है कि व्यक्ति पूर्ण अहिंसा के आदर्श को पूर्णरूपेण साकार कर सके । शरीर के लिए आहार आवश्यक है, कोई भी आहार बिना हिंसा के सम्भव नहीं होगा | चाहे हमारा मुनिवर्ग यह कहता भी हो कि हम औद्देशिक आहार नहीं लेते हैं किन्तु क्या उनकी विहार यात्रा में साथ चलनेवाला पूरा लवाजिमा, सेवा में रहने के नाम पर लगनेवाले चौके औद्देशिक नहीं हैं ? जब समाज में रात्रिभोजन सामान्य हो गया हो, क्या सन्ध्याकालीन गोचरी में अनौदेशिक आहार मिल पाना सम्भव है, क्या कश्मीर से कन्याकुमारी तक और बम्बई से कलकत्ता तक की सारी यात्राएँ औद्देशिक आहार के अभाव में निर्विघ्न सम्भव हो सकती हैं ? क्या आर्हत- प्रवचन की प्रभावना के लिए मन्दिरों का निर्माण, पूजा और प्रतिष्ठा के समारोह, संस्थाओं का संचालन मुनि - जनों के स्वागत और विदाई समारोह तथा संस्थाओं के अधिवेशन षटुकाय की नवकोटियुक्त अहिंसा के परिपालन के साथ कोई संगति रख सकते हैं ? हमें अपनी अन्तरात्मा से यह सब पूछना होगा । हो सकता है कि कुछ विरल सन्त और साधक हों जो इन कसौटियों पर खरे उतरते हों, मैं उनकी बात नहीं कहता, शतशः वन्दनीय हैं, किन्तु सामान्य स्थिति क्या है ? फिर भिक्षाचर्या, पाद - विहार, शरीर संचालन, श्वासोच्छ्वास किसमें हिंसा नहीं है । पृथ्वी, अग्नि, वायु, वनस्पति अदि सभी में जीव हैं, ऐसा कोई मनुष्य नहीं जो इन्हें नहीं मारता हो, पुनः कितने ही ऐसे सूक्ष्म प्राणी हैं जो इन्द्रियों से नहीं, अनुमान से जाने जाते हैं, मनुष्य की पलकों के जिनके कंधे टूट जाते हैं अतः जीव-हिंसा से बचा नहीं जा सकता निकाय की अवधारणा और दूसरी ओर नवकोटियुक्त पूर्ण जीवित रहकर इन दोनों में संगति बिठा पाना अशक्य है । अतः जैन आचार्यों को भी यह कहना पड़ा कि 'अनेकानेक जीव-समूहों से परिव्याप्त विश्व में साधक का अहिंसकत्व अन्तर में आध्यात्मिक विशुद्धि की दृष्टि से ही है' (ओघनिर्युक्ति, ७४७ ) । लेकिन इसका यह अर्थ भी नहीं है कि हम अहिंसा को अव्यवहार्य मानकर तिलांजलि दे देवें । यद्यपि एक शरीरधारी के नाते यह हमारी विवशता है कि हम द्रव्य और भाव दोनों अपेक्षा से पूर्ण अहिंसा के आदर्श को उपलब्ध नहीं कर सकते हैं किंतु उस दिशा में क्रमशः आगे बढ़ सकते हैं और जीवन की पूर्णता के साथ ही पूर्ण अहिंसा के आदर्श को भी उपलब्ध कर सकते हैं कम से कम हिंसा की दिशा में झपकने मात्र से ही । एक ओर षट्जीवअहिंसा का आदर्श, । आगे बढ़ते हुए लिए जीवन का अन्तिम क्षण अवश्य ही ऐसा है, जब वह पूर्ण अहिंसा के साकार कर सकता है । जैनधर्म की पारिभाषिक शब्दावली में कहें तो Jain Education International For Private & Personal Use Only साधक के आदर्श को पादोपगमन www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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