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________________ २०२ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन आत्मा ही हिंसा है और आत्मा अहिंसा है । प्रमत्त आत्मा हिंसक है और अप्रमत्त आत्मा अहिंसक है ।२ आत्मा की प्रमत्त दशा हिंसा की अवस्था है और अप्रमत्त दशा अहिंसा की अवस्था है। द्रव्य एवं भाव अहिंसा-अहिंसा को सम्यक् रूप से समझने के लिए पहले यह जान लेना आवश्यक है कि जैन-विचारणा के अनुसार हिंसा क्या है ? जैन-विचारणा हिंसा का दो पक्षों से विचार करती है। एक हिंसा का बाह्य पक्ष है, जिसे जैन पारिभाषिक शब्दावली में द्रव्य हिंसा कहा गया है। द्रव्य हिंसा स्थूल एवं बाह्य घटना है। यह एक क्रिया है जिसे प्राणातिपात, प्राणवध, प्राणहनन आदि नामों से जाना जाता है । जैन-विचारणा आत्मा को सापेक्ष रूप में नित्य मानती है। अतः हिंसा के द्वारा जिसका हनन होता है वह आत्मा नहीं, वरन प्राण है-प्राण जैविक शक्ति है। जैन विचारणा में प्राण दस माने गये हैं । पाँच इन्द्रियों की शक्ति, मन, वाणी और शरीर का विविध बल, श्वसन-क्रिया एवं आयुष्य ये दस प्राण हैं। इन प्राण-शक्तियों का वियोजीकरण ही द्रव्य-दृष्टि से हिंसा है ।' यह हिंसा की यह परिभाषा उसके बाह्य पक्ष पर बल देती है । द्रव्य-हिंसा का तात्पर्य प्राण-शक्तियों का कुण्ठन, हनन तथा विलगाव करना है। भाव-हिंसा हिंसा का विचार है, यह मानसिक अवस्था है, जो प्रमादजन्य है । आचार्य अमृतचन्द्र हिंसा के भावात्मक पक्ष पर बल देते हुए हिंसा-अहिंसा की परिभाषा करते हैं । उनका कथन है कि रागादि कषायों का अभाव अहिंसा है और उनका उत्पन्न होना ही हिंसा है। यही जैन-आगमों की विचार दृष्टि का सार है।' हिंसा की पूर्ण परिभाषा तत्त्वार्थसूत्र में मिलती है। तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार राग, द्वेष आदि प्रमादों से युक्त होकर किया जाने वाला प्राण-वध हिंसा है। हिंसा के प्रकार जैन विचारकों ने द्रव्य और भाव इन दो रूपों के आधार पर हिंसा के चार विभाग किये हैं-१. मात्र शारीरिक हिंसा, २. मात्र वैचारिक हिंसा, ३. शारीरिक एवं वैचारिक हिंसा, और ४. शाब्दिक हिंसा । मात्र शारीरिक हिंसा या द्रव्य हिंसा वह है जिसमें हिंसक क्रिया तो सम्पन्न हुई हो, लेकिन हिंसक विचार का अभाव हो । उदाहरणस्वरूप, सावधानीपूर्वक चलते हुए भी दृष्टिदोष या जन्तु की सूक्ष्मता के कारण उसके नहीं दिखाई देने पर हिंसा हो जाना। मात्र वैचारिक हिंसा या भाव हिंसा वह है जिसमें हिंसा की क्रिया तो अनुपस्थित हो, लेकिन हिंसा का संकल्प उपस्थित हो। इसमें कर्ता हिंसा के संकल्प से युक्त होता है, लेकिन बाह्य परिस्थितिवश उसे क्रियान्वित करने में सफल नहीं हो पाता है, जैसे कैदी का न्यायाधीश की हत्या करने का विचार (जैन १. ओघनियुक्ति, ७५४ २. अभिधान राजेन्द्र , खण्ड ७, पृ० १२२८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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