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________________ सामाजिक नैतिकता के केन्द्रिय तत्व : अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह जैनागमों में अहिंसा की व्यापकता १ जैन- विचारणा में अहिंसा का क्षेत्र कितना व्यापक है, इसका बोध हमें प्रश्नव्याकरणसूत्र से हो सकता है । उसमें अहिंसा के साठ पर्यायवाची नाम वर्णित हैं - १. निर्वाण, २. निवृत्ति, ३. समाधि, ४. शान्ति, ५. कीर्ति, ६. कान्ति, ७. प्रेम, ८. वैराग्य, ९. श्रुतांग, १०. तृप्ति, ११. दया, १२. विमुक्ति, १३. क्षान्ति, १४. सम्यक् आराधना, १५. महती, १६. बोधि, १७ बुद्धि, १८. धृति, १९. समृद्धि, २०. ऋद्धि, २१. वृद्धि, २२. स्थिति (धारक), २३. पुष्टि ( पोषक), २४. नन्द (आनन्द), २५. भद्रा, २६. विशुद्धि, २७ लब्धि, २८. विशेष दृष्टि, २९. कल्याण, ३०. मंगल, ३१. प्रमोद, ३२. विभूति, ३३. रक्षा, ३४ सिद्धावास, ३५. अनास्रव, ३६. कैवल्यस्थान, ३७. शिव, ३८. समिति, ३९. शील, ४०. संयम, ४१. शील परिग्रह, ४२. संवर, ४३. गुप्ति, ४४. व्यवसाय, ४५. उत्सव, ४६. यज्ञ, ४७. आयतन, ४८. यतन, ४९. अप्रमाद, ५०. आश्वासन, ५१. विश्वास, ५२. अभय, ५३. सर्व अमाघात ( किसी को न मारना ), ५४. चोक्ष ( स्वच्छ ), ५५ पवित्र, ५६. शुचि, ५७. पूता या पूजा, ५८. विमल, ५९. प्रभात और ६०. निर्मलतर । इस प्रकार जैन आचार - दर्शन में अहिंसा शब्द एक व्यापक दृष्टि को लेकर उपस्थित होता है । उसके अनुसार सभी सद्गुण अहिंसा में निहित हैं और अहिंसा ही एकमात्र सद्गुण है | अहिंसा सद्गुण-समूह की सूचक है | असा क्या है ? २०१ हिंसा का प्रतिपक्ष अहिंसा है । यह अहिंसा की एक निषेधात्मक परिभाषा है | लेकिन हिंसा का त्याग मात्र अहिंसा नहीं है । निषेधात्मक अहिंसा जीवन के समग्र पक्षों को स्पर्श नहीं करती । वह आध्यात्मिक उपलब्धि नहीं कही जा सकती । निषेधात्मक अहिंसा मात्र बाह्य हिंसा नहीं करना है, यह अहिंसा का शरीर हो सकता है, अहिंसा की आत्मा नहीं । किसी को नहीं मारना यह अहिंसा के सम्बन्ध में मात्र स्थूल दृष्टि है । लेकिन यह मानना भ्रान्तिपूर्ण होगा कि जैन धर्म अहिंसा की इस स्थूल एवं बहिर्मुखी दृष्टि तब सीमित रही है । जैन दर्शन का केन्द्रीय सिद्धान्त अहिंसा शाब्दिक दृष्टि से चाहे नकारात्मक है, लेकिन उसकी अनुभूति नकारात्मक नहीं है । उसकी अनुभूति सदैव ही विधायक रही है । सर्वत्र आत्मभाव मूलक करुणा और मैत्री की विधायक अनुभूतियों से अहिंसा की धारा प्रवाहित हुई है । अहिंसा क्रिया नहीं, सत्ता है, वह आत्मा की एक अवस्था है । आत्मा की प्रमत्त अवस्था ही हिंसा है और अप्रमत्त अवस्था है | आचार्य भद्रबाहु ओघनियुक्ति में लिखते हैं कि पारमार्थिक दृष्टि से १. प्रश्नव्याकरणसूत्र १।२१ २. दशवैकालिक - निर्युक्ति, ६० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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