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________________ स्वधर्म को अवधारणा १९३ ब्रेडले का स्वस्थान और उसके कर्तव्य का सिद्धान्त तथा स्वधर्म-भारतीय परम्परा के स्वधर्म के सिद्धान्त के समान ही पाश्चात्त्य परम्परा में ब्रेडले ने 'स्वस्थान और उसके कर्तव्य' का सिद्धान्त स्थापित किया । ब्रेडले का कहना है कि हम उस समय अपने को प्राप्त करते हैं जब हम अपने स्थान और कर्तव्यों को एक समाजरूपी शरीर के अंग के रूप में प्राप्त कर लेते हैं ।' ब्रेडले ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक एथिकल स्टडीज में इस सम्बन्ध में पर्याप्त प्रकाश डाला है। यहाँ तो हम केवल उसके सिद्धान्त का सारांश ही प्रस्तुत कर रहे हैं। ब्रेडले के उपर्युक्त कथन का अर्थ यह है कि हमें अपनी योग्यताओं और क्षमताओं को परख कर सामाजिक जीवन के क्षेत्र में अपने कर्तव्य का निर्धारण कर लेना चाहिए । वस्तुतः हमारा कर्तव्य वही हो सकता है जो हमारी प्रकृति हो । अपनी प्रकृति के अनुरूप सामाजिक जीवन में अपने स्थान का निर्धारण एवं उसके कर्तव्यों का चयन और उनका पालन ही ब्रडले के दृष्टिकोण का आशय है, यद्यपि यह ध्यान में रखना चाहिये कि स्वस्थान के अनुरूप कर्तव्य-पालन नैतिकता की अन्तिम परिणति नहीं है । हमें उससे भी ऊपर उठना होगा। १. एथिकल स्टडीज, पृ० १६३ २. एथिकल स्टडीज, अध्याय ५ १३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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