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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन जैनधर्म में स्वधर्म
जैन-दर्शन में भी स्वस्थान के अनुसार कर्तव्य करने का निर्देश है । प्रतिक्रमणसूत्र में प्रतिक्रमण की व्याख्या करते हुए बतलाया गया है कि यदि साधक प्रमादवश स्वस्थान के कर्तव्यों से च्युत होकर पर स्थान के कर्तव्यों को अपना लेता है तो पुनः आलोचनापूर्वक परस्थान के आचरण को छोड़कर स्वस्थान के कर्तव्यों पर स्थित हो जाना ही प्रतिक्रमण (पुनः स्वस्थान या स्वधर्म की ओर लौट आना) है।' इस प्रकार जैन नैतिकता का स्पष्ट निर्देश है कि साधक को स्वस्थान के कर्तव्यों का ही आचरण करना चाहिए । वृहत्कल्प भाष्यपीठिका में कहा गया है कि स्वस्थान में स्वस्थान के कतय का आचरण ही श्रेयस्कर और सबल है । इसके विपरीत स्वस्थान में परस्थान के कर्तव्य का आचरण अश्रेयस्कर एवं निष्फल है । जैन आचार-दर्शन यही कहता है कि साधक को अपने बलाबल का निश्चय कर स्वस्थान चुनना चाहिए और स्वस्थान के कर्तव्यों का पालन करना चाहिए । जैन साधना का आदर्श यही है कि साधक प्रथम अपने देश, काल, स्वभाव और शक्ति के आधार पर स्वस्थान का निश्चय करे अर्थात् गृहस्थ धर्म या साधु धर्म या साधना के अन्य स्तरों में वह किसका परिपालन कर सकता है । स्वस्थान का निश्चय करने के बाद ही उस स्थान के निर्दिष्ट कर्तव्यों के अनुसार नैतिक आचरण करे । दशवैकालिक सूत्र में कहा है कि साधक अपने बल, पराक्रम, श्रद्धा एवं आरोग्य को अच्छी प्रकार देखभाल कर तथा देश और काल का सम्यक् परिज्ञान कर तदनुरूप कर्तव्य पथ में अपने को नियोजित करे । बृहत्कल्पभाष्य पीठिका के उपरोक्त श्लोक के संदर्भ में टिप्पणी करते हुए उपाध्याय अमरमुनिजी कहते हैं, प्रत्येक जीवन-क्षेत्र में स्वस्थान का बड़ा महत्त्व है, स्वस्थान में जो गुरुत्व है वह परस्थान में कहाँ । जल में मगर जितना बलशाली है, क्या उतना स्थल में भी है ? नहीं। यद्यपि स्वस्थान के कर्तव्य के परिपालन का सिद्धान्त जैन और गीता के आचार-दर्शन में समान रूप से स्वीकार हुआ है, लेकिन दोनों में थोड़ा अन्तर भी है-गीता और जैन-दर्शन इस बात में तो एक मत हैं कि व्यक्ति के स्वस्थान का निश्चय उसकी प्रकृति अर्थात् गुण और क्षमता के आधार पर करना चाहिए, लेकिन गीता इसके आधार पर व्यक्ति के सामाजिक स्थान का निर्धारण कर उस सामाजिक स्थान के कर्तव्यों के परिपालन का निर्देश करती है, जबकि जन-धर्म यह बताता है व्यक्ति को साधना के उच्चतम से निम्नतर विभिन्न स्तरों में किस स्थान पर रहकर उस स्थान के लिए निश्चित आचरण के नियमों का परिपालन करना चाहिए। स्वस्थान और परस्थान का विचार यह कहता है कि साधना के विभिन्न स्तरों में से किसी स्थान पर रहकर उस स्थान के निश्चित आचरण के नियमों का परिपालन करना चाहिए । १. उद्धृत जैनधर्म का प्राण, पृ० १४२ २. बृहद्कल्पभाष्य पीठिका ३२३ ३. दशवकालिक ८।३५
४. श्रीअमर भारती मार्च १९६५, पृ० ३०
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