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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन आधार कर्म है । २. वर्ण परिवर्तनीय है। ३. श्रेष्ठत्व का आधार वर्ण या व्यवसाय नहीं, वरन् नैतिक विकास है । ४. नैतिक साधना का द्वार सभी के लिए समान रूप से खुला है । चारों ही वर्ण श्रमण-संस्था में प्रवेश पाने के अधिकारी हैं । यद्यपि प्राचीन समय में श्रमण-संस्था में चारों ही वर्ण प्रवेश के अधिकारी थे, यह आगमिक प्रमाणों से सिद्ध है; लेकिन परवर्ती जैन आचार्यों ने मातङ्ग, मछुआ आदि जाति-जुङ्गित और नट, पारधी आदि कर्म-जुङ्गित लोगों को श्रमण-संस्था में प्रवेश के अयोग्य माना। लेकिन यह जैनविचारधारा का मौलिक मन्तव्य नहीं है, वरन् ब्राह्मण-परम्परा का प्रभाव है । इस व्यवस्था का विधान करनेवाले आचार्य ने इसके लिए मात्र लोकापवाद का ही तर्क दिया है, जो अपने आपमें कोई ठोस तर्क नहीं वरन् अन्य परम्परा के प्रभाव का ही द्योतक है।' इसी प्रकार दक्षिण में विकसित जैनधर्म को दिगम्बर-परम्परा में जो शूद्र के अन्नजल ग्रहण का निषेध तथा शूद्र को मुक्ति निषेध की अवधारणाएं विकसित हुई हैं, वे भी ब्राह्मण-परम्परा का प्रभाव है।
बौद्ध आचार दर्शन में वर्ण-व्यवस्था-बौद्ध आचार-दर्शन भी वर्ण-धर्म का निषेध नहीं करता है, लेकिन वह उनको जन्मगत आधार पर स्थित नहीं मानता है । बौद्ध-धर्म के अनुसार भी वर्णव्यवस्था जन्मना नहीं, कर्मणा है । कर्मों से ही मनुष्य ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र बनता है, न कि उन कुलों में जन्म लेने मात्र से । बौदागमों में जातिवाद के खण्डन के अनेक प्रसंग मिलते हैं, लेकिन उन सबका मूलाशय यही है कि जाति या वर्ण आचरण के आधार पर बनता है, न कि जन्म के आधार पर । भगवान् बुद्ध ने जहाँ कहीं जातिवाद का निरसन किया है, वहाँ जाति से उनका तात्पर्य शरीर रचना सम्बन्धी विभेद से नहीं, जन्मना जातिवाद से ही है। बुद्ध के अनुसार जन्म के आधार पर किसी प्रकार के जातिवाद की स्थापना नहीं की जा सकती। सुत्तनिपात के निम्न प्रसंग में इस बात को स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है।
वसिष्ठ एवं भरद्वाज जातिवाद सम्बन्धी विवाद को लेकर बुद्ध के सम्मुख उपस्थित होते हैं । वसिष्ठ बुद्ध से कहते हैं, “गौतम ! जाति-भेद के विषय में हमारा विवाद है, भरद्वाज कहता है कि ब्राह्मण जन्म से होता है, मैं तो कर्म से बताता हूँ। हमलोग एक दूसरे को अवगत नहीं कर सकते हैं, इसलिए सम्बुद्ध (नाम से) विख्यात आपसे (इस विषय में) पूछने आये हैं।"
बुद्ध कहते हैं, "हे वसिष्ठ ! मैं क्रमशः यथार्थ रूप से प्राणियों के जातिभेद को बताता हूँ जिनसे भिन्न-भिन्न जातियाँ होती हैं । तृण, वृक्षों को जानो । यद्यपि वे इस बात का दावा ही नहीं करते, फिर भी उनमें जातिमय लक्षण है जिससे भिन्न-भिन्न जातियाँ होती हैं । कीटों, पतंगों और चीटियों तक में जातिमय लक्षण हैं जिससे उनमें भिन्न-भिन्न १. प्रवचन-सारोद्धार १०७
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