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________________ वर्णाश्रम-व्यवस्था १७७ सकता है, मनुष्यों के सम्बन्ध में नहीं। जन्मना सभी मनुष्य समान है। मनुष्यों को एक ही जाति है ।' जन्म के आधार पर जाति का निश्चय नहीं किया जा सकता । मत्स्यगंधा ( मल्लाह की कन्या ) के गर्भ से महर्षि पराशर द्वारा उत्पन्न महामुनि व्यास अपने उत्तम कर्मों के कारण ब्राह्मण कहलाये। मतलब यह कि कर्म या आचरण के आधार पर ही चातुर्वर्ण्य व्यवस्था निर्णय करना उचित है। जिस प्रकार शिल्प-कला का व्यसायी शिल्पी कहलाता है, उसी प्रकार ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला ब्राह्मण कहलाता है। जैन-विचारणा जन्मना जातिवाद का निरसन करती है । कर्मणा वर्ण-व्यवस्था से उसका कोई सैद्धान्तिक विरोध नहीं है। उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्ट रूपसे कहा गया है कि मनुष्य कर्म से ही ब्राह्मण होता है, कर्म से ही क्षत्रिय होता है और कर्म से ही वैश्य और शूद्र होता है। मुनि चौथमल जी निर्ग्रन्थ-प्रवचन भाष्य में कहते हैं कि एक व्यक्ति दुःशील, अज्ञानी और प्रकृति से तमोगुणो होने पर भी अमुक वर्ण वाले के घर में जन्म लेने के कारण समाज में पूज्य, आदरणीय, प्रतिष्ठित और ऊंचा समझा जाय, और दूसरा व्यक्ति सुशील, ज्ञानी और सतोगुणी होने पर भी केवल अमुक कुल में जन्म लेने के कारण नीच और तिरस्करणीय माना जाय, यह व्यवस्था समाजघातक है। इतना ही नहीं, ऐसा मानने से न केवल समाज के एक बहुसंख्यक भाग का अपमान होता है, प्रत्युत यह सद्गुण और सदाचार का भी घोर अपमान होता है। इस व्यवस्था को अंगीकार करने से दुराचारी सदाचारी से ऊँचा उठ जाता है, अज्ञान ज्ञान पर विजयी होता है और तमोगुण सतोगुणके सामने आदरास्पद बन जाता है। यह ऐसी स्थिति है जो गुणग्राहक विवेकीजनों को सह्य नहीं हो सकती अर्थात् जाति की अपने आपमें कोई विशेषता नहीं है, महत्त्व नैतिक सदाचरण (तप) का है। जैन-विचारणा यह तो स्वीकार करती है कि लोक-व्यवहार या आजीविका के हेतु किये गये कर्म (व्यवसाय) के आधार पर समाज का वर्गीकरण किया जा सकता है, लेकिन इस व्यावसायिक या सामाजिक व्यवस्था के क्षेत्र में किये जाने वाले विभिन्न कर्मों के वर्गीकरण के आधार पर किसी वर्ग की श्रेष्ठता या हीनता का प्रतिपादन नहीं किया जा सकता। किसी व्यक्ति की श्रेष्ठता या हीनता का आधार व्यावसायिक कर्म नहीं है, वरन् व्यक्ति की नैतिक योग्यता या सद्गुणों का विकास है। उत्तराध्ययन में निर्देश है कि साक्षात् तप का ही माहात्म्य दिखाई देता है, जाति की कुछ भी विशेषता नहीं दिखाई देती। चाण्डालपुत्र हरिकेशी मुनि को देखो, जिनकी महाप्रभावशाली ऋद्धि है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन विचारणा का वर्ण-व्यवस्था के सम्बन्ध में निम्न दृष्टिकोण है । १. वर्ण-व्यवस्था जन्म के आधार पर स्वीकार नहीं की गई वरन् उसका १. अभिधान राजेन्द्र खण्ड ४, पृ० १४४१ ३. निर्ग्रन्थ-प्रवचन-भाष्य, पृ० २८९ १२ २. उत्तराध्ययन, २५।३३ ४. उत्तराध्ययन, १२।३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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