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अध्याय : ८
निवृत्तिमार्ग और प्रवृत्तिमार्ग
निवृत्ति मार्ग एवं प्रवृत्ति मार्ग का विकास ( १२० ) ; निवृत्ति प्रवृत्ति के विभिन्न अर्थ - ( १२० ); प्रवृत्ति और निवृत्ति सक्रियता एवं निष्क्रियता के अर्थ में - जैनदृष्टिकोण (१२१ ); बौद्ध दृष्टिकोण (१२२); गीता का दृष्टिकोण ( १२२ ) ; गृहस्थ धर्म बनाम संन्यास धर्म- जैन और बौद्ध दृष्टिकोण ( १२३ ); संन्यास मार्ग पर अधिक बल ( १२४ ) ; जैन और बौद्ध दर्शन में संन्यास निरापद मार्ग (१२४ ); क्या संन्यास पलायन है ? ( १२५ ) ; गृहस्थ और संन्यास जीवन की श्रेष्ठता ? (१२६); गीता का दृष्टिकोण, शंकर का संन्यासमार्गीय दृष्टिकोण ( १२८); तिलक का कर्ममार्गीय दृष्टिकोण (१२८); गीता का दृष्टिकोण समन्वयात्मक ( १२९ ) ; निष्कर्ष ( १३०); भोगवाद बनाम वैराग्यवाद (१३१); जैन दृष्टिकोण ( १३२ ); बौद्ध दृष्टिकोण (१३४); गीता का दृष्टिकोण (१३५); विधेयात्मक बनाम निषेधात्मक नैतिकता (१३५); जैन दृष्टिकोण ( १३५ ) ; बौद्ध दृष्टिकोण (१३७ ); गीता का दृष्टिकोण ( १३७ ) ; व्यक्तिपरक बनाम समाजपरक नीतिशास्त्र ( १३७ ) ; प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों आवश्यक (१३९); दोनों की सीमाएँ एवं क्षेत्र (१४०); जैन दृष्टिकोण ( १४० ); बौद्ध दृष्टिकोण (१४१ ); गीता का दृष्टिकोण (१४१); उपसंहार (१४१) ।
अध्याय : ९
भारतीय दर्शन में सामाजिक चेतना का विकास ( १४५ ) ; वेदों एवं उपनिषदों में सामाजिक चेतना ( १४६ ) ; गीता में सामाजिक चेतना ( १४८); जैन एवं बौद्ध धर्म में सामाजिक चेतना (१५० ) ; रागात्मकता और समाज ( १५२); सामाजिकता का आधार राग या विवेक ? ( १५४ ) ; सामाजिक जीवन में बाधक तत्त्व अहंकार और कषाय (१५५ ) ; संन्यास और समाज ( १५६); पुरुषार्थ चतुष्टय एवं समाज ( १५७) ।
अध्याय : १०
स्वहित बनाम लोकहित
जैनाचार - दर्शन में स्वार्थ और परार्थ ( १६२ ) ; जैन-साधना में लोकहित (१६२); तीर्थंकर (१६३); गणधर (१६४); सामान्य केवली ( १६४ ); आत्महित स्वार्थ नहीं है ( ६५१ ); द्रव्य-लोकहित ० ( १६६); भाव - लोकहित ( १६६); पारमार्थिक -लोकहित (१६६ ); बौद्ध दर्शन की लोकहितकारिणी दृष्टि (१६६); स्वहित और लोकहित के सम्बन्ध में गीता काम न्तव्य ( १७३); ।
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१२०-१४२
भारतीय दर्शन में सामाजिक चेतना १४५-१६०
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१६१-१७५
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