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________________ भारतीय दर्शन में सामाजिक चेतना १५९ हम इन्कार भी नही कर सकते क्योंकि जीवन मुक्त एक ऐसा व्यक्तित्व है जो सदैव • लोक-कल्याण के लिए प्रस्तुत रहता है । जैन दर्शन में तीर्थंकर, बौद्ध दर्शन में अर्हत् एवं बोधिसत्व और वैदिक दर्शन में स्थितप्रज्ञ की जो धारणाएँ प्रस्तुत की गई हैं और उनके व्यक्तित्व को जिस रूप में चित्रित किया गया है उससे हम निश्चय ही इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि मोक्ष के प्रत्यय की सामाजिक उपादेयता भी है । वह लोक-मंगल और मानव कल्याण का एक महान आदर्श माना जा सकता है क्योंकि जनजन का दुःखों से मुक्त होना ही मुक्ति है, मात्र इतना ही नहीं, भारतीय चिन्तन में वैयक्तिक मुक्ति की अपेक्षा भी लोक-कल्याण के लिए प्रयत्नशील बने रहने को अधिक महत्त्व दिया गया है । बौद्ध दर्शन में बोधिसत्व का और गीता में स्थितप्रज्ञ का जो आदर्श प्रस्तुत किया गया है, वह हमें स्पष्ट रूप से बताता है कि केवल वैयक्तिक मुक्ति को प्राप्त कर लेना ही अन्तिम लक्ष्य नहीं है । बोधिसत्व तो लोकमंगल के लिये अपने बन्धन और दुःख की कोई परवाह नहीं करता है । वह कहता है :: - बहुनामेकदुःखेन यदि दुःखं विगच्छति । उत्पाद्यमेव तद् दुःखं सदयेन परात्मनो । मुच्यमानेषु सत्त्वेषु ये ते प्रमोद्यसागराः । तैरेव ननु पर्याप्तं मोक्षेणारसिकेन किम् ॥ ' यदि एक के कष्ट उठाने से बहुतों का दुःख दूर होता हो, तो करूणापूर्वक उनके दुःख दूर करना ही अच्छा है । प्राणियों को दुःखों से मुक्त होता हुआ देखकर जो आनन्द प्राप्त होता है वही क्या कम है, फिर नीरस मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा की क्या आवश्यकता है ? वैयक्तिक मुक्ति की धारणा की आलोचना करते हुए और जन-जन की मुक्ति के लिए अपने संकल्प को स्पष्ट करते हुए भागवत के सप्तम स्कन्ध में प्रहलाद ने स्पष्ट रूप से कहा था कि प्रायेण देवमुनयः स्वविमुक्तिकामाः । मौनं चरन्ति विजने न परार्थनिष्ठाः ॥ नैतान् विहाय कृपणान् विमुमुक्षुरेकः । 'हे प्रभु अपनी मुक्ति की कामना करने वाले देव और मुनि तो अब तक काफी हो चुके हैं, जो जंगल में जाकर मौन साधन किया करते थे । किन्तु उनमें परार्थ-निष्ठा नहीं थी । मैं तो अकेला इन सब दुःखीजनों को छोड़कर मुक्त होना भी नहीं चाहता ।' यह भारतीय दर्शन और साहित्य का सर्वश्रेष्ठ उद्गार है । इसी प्रकार बोधिसत्व भी सदैव ही दीन और दुःखी जनों को दुःख से मुक्त कराने के लिए प्रयत्नशील बने रहने की अभिलाषा करता है और सबको मुक्त कराने के पश्चात् ही मुक्त होना चाहता है । भवेयमुपजीव्योऽहं यावत्सर्वे न निर्वृताः । १. बोधिचर्यावतार ८।१०५, १०८ । २. वही, ३।२१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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