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________________ १५८ जेन, बौद्ध तथा गीता के आधारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन रूप में परिभाषित कर उसका सम्बन्ध भी हमारे सामाजिक जीवन से जोड़ा गया है । वह लोक-मर्यादा और लोक व्यवस्था का ही सूचक है । अतः पुरुषार्थ-चतुष्टय में केवल मोक्ष ही एक ऐसा पुरुषार्थ है जिसकी सामाजिक सार्थकता विचारणीय है । प्रश्न यह है कि क्या मोक्ष की धारणा सामाजिक दृष्टि से उपादेय हो सकती है ? जहाँ तक मोक्ष की मरणोत्तर अवस्था या तत्त्व-मीमांसीय धारणा का प्रश्न है उस सम्बन्ध में न तो भारतीय दर्शनों में ही एक रूपता है और न उसकी कोई सामाजिक सार्थकता ही खोजी जा सकती है । किन्तु इसी आधार पर मोक्ष को अनुपादेय मान लेना उचित नहीं है । लगभग सभी भारतीय दार्शनिक इस सम्बन्ध में एकमत हैं कि मोक्ष का सम्बन्ध मुख्यतः मनुष्य की मनोवृत्ति से है । बन्धन और मुक्ति दोनों ही मनुष्य के मनोवेगों से सम्बन्धित है । राग, द्वेष, आसक्ति, तृष्णा, ममत्व, अहम् आदि की मनोवृत्तियाँ ही बन्धन हैं और इनसे मुक्त होना ही मुक्ति है। मुक्ति की व्याख्या करते हुए जैन दानिर्शकों ने कहा था कि मोह और क्षोभ से रहित आत्मा की अवस्था ही मुक्ति है। आचर्य शंकर कहते हैं:'वासनाप्रक्षयो मोक्षः १ वस्तुतः मोह और क्षोभ हमारे जीवन से जुड़े हुए हैं और इसलिए मुक्ति का सम्बन्ध भी हमारे जीवन से ही है । मेरी दृष्टि में मोक्ष मानसिक तनावों से मुक्ति है । यदि मोक्ष के प्रत्यय की सामाजिक सार्थकता के सम्बन्ध से विचार करना चाहते हैं तो हमें इन्हीं मनोवृत्तियों एवं मानसिक विक्षोभों के सन्दर्भ में उस पर विचार करना होगा । सम्भवतः इस सम्बन्ध में कोई भी दो मत नहीं रखेगा कि राग, द्वेष, तृष्णा, आसक्ति, ममत्व, ईर्ष्या, वैमनस्य आदि की मनोवृत्तियाँ हमारे सामाजिक जीवन के लिए अधिक बाधक हैं । यदि इन मनोवृत्तियों से मुक्त होना ही मुक्ति का हार्द है सम्बन्ध हमारे सामाजिक जीवन के साथ जुड़ा हुआ है । मोक्ष मात्र अवस्था नहीं है अपितु वह हमारे जीवन से सम्बन्धित है । मोक्ष को पुरुषार्थ माना गया है । इसका तात्पर्य यह है कि वह इसी जीवन में प्राप्तव्य है, जो मरणोत्तर अवस्था मानते हैं, वे मोक्ष के वास्तविक स्वरूप से शंकर लिखते हैं: लोग मोक्ष को एक अनभिज्ञ हैं । आचार्य देहस्य मोक्षो नो मोक्षो न दण्डस्य अविद्याहृदयग्रन्थिमोक्षो मोक्षो Jain Education International कमण्डलोः । यतस्ततः ॥ मरणोत्तर मोक्ष या विदेह मुक्ति साध्य नहीं है । उसके लिए कोई साधना अपेक्षित नहीं है । जिस प्रकार मृत्यु जन्म लेने का अनिवार्य परिणाम है उसी प्रकार विदेह-मुक्ति तो जीवन-मुक्ति का अनिवार्य परिणाम है । अतः जो प्राप्तव्य है, जो पुरुषार्थ है और जो साध्य है वह तो जीवन मुक्ति ही है । जीवन मुक्ति के प्रत्यय की सामाजिक सार्थकता से १. विवेकचूडामणि ३१८ २. वही, ५५९ । तो मुक्ति का एक मरणोत्तर For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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