SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 170
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निवृत्तिमार्ग और प्रवृत्तिमार्ग १३३ और पूजा-सत्कार (अहंकार तुष्टि के प्रयासों) का त्याग कर दिया है उन्होंने सब-कुछ त्याग दिया है। ऐसे ही लोग मोक्षमार्ग में स्थिर रह सके हैं।" 'बुद्धिमान् पुरुषों से मैंने सुना है कि सुख-शोलता का त्याग करके, कामनाओं को शान्त करके निष्काम होना ही वीर का वीरत्व है ।'२ ‘इसलिए साधक शब्द-स्पर्श आदि विषयों में अनासक्त रहे और निन्दित कर्म का आचरण नहीं करे, यहा धर्म-सिद्धान्त का सार है । शेष सभी बातें धर्म सिद्धान्त के बाहर हैं ।'3 फिर भो उपर्युक्त वैराग्यवादी तथ्यों का अर्थ देह-दण्डन या आत्म-पीड़न नहीं है । जैन-वैराग्यवाद देह-दण्डन की उन सब प्रणालियों को, जो वैराग्य के सही अर्थों से दूर हैं, कतई स्वीकार नहीं करता । जैन आचार-दर्शन में साधना का सही अर्थ वासना-क्षय है, अनासक्त दृष्टि का विकास है, राग-द्वेष से ऊपर उठना है । उसकी दृष्टि में वैराग्य अन्तर की वस्तु है, उसे अन्तर में जागृत होना चाहिए । केवल शरीर-यंत्रणा या देहदण्डन का जैन-साधना में कोई मूल्य नहीं है। सूत्रकृतांग एवं उत्तराध्ययन में स्पष्ट कहा गया है कि 'कोई भले ही नग्नावस्था में फिरे या मास के अन्त में एक बार भोजन करे, लेकिन यदि वह माया से युक्त है तो बार-बार गर्भवास को प्राप्त होगा अर्थात् वह बन्धन से मुक्त नहीं होगा। जो अज्ञानी मास-मास के अन्त में कुशाग्र जितना आहार ग्रहण करता है वह वास्तविक धर्म की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं है।'५ जैनदृष्टि स्पष्ट कहती है कि बन्धन या पतन का कारण राग-द्वेष युक्त दृष्टि है, मूर्छा या आसक्ति है, न कि काम-भोग । विकृति के कारण तो काम-भोग के पीछे निहित राग या आसक्ति के भाव ही हैं, काम-भोग स्वयं नहीं । उतराव्ययनसूत्र में कहा है, 'काम-भोग किसी को न तो सन्तुष्ट कर सकते हैं, न किसो में विकार पैदा कर सकते हैं । किन्तु जो काम-भोगों में राग-द्वेष करता है वही उस राग-द्वेषजनित मोह से विकृत हो जाता है । जैन दृष्टि नैतिक आचरण के क्षेत्र में जिसका निषेध करती है वह तो आसक्ति या राग-द्वेष के भाव हैं । यदि पूर्ण अनासक्त अवस्था में भोग सम्भव हो तो उसका उन भोगों से विरोध नहीं है, लेकिन वह यह मानती है कि भोगों के बीच रहकर भोगों को भोगते हुए उनमें अनासक्त भाव रखना असम्भव चाहे न हो लेकिन सुसाध्य भी नहीं है । अतः काम-भोगों के निषेध का साधनात्मक मूल्य अवश्य मानना होगा। साधना का लक्ष्य पूर्ण अनासक्ति या वीतरागावस्था है । काम-भोगों का परित्याग उसकी उपलब्धि का साधन है । यदि यह साधन साध्य से संयोजित है, साध्य की दिशा में प्रयुक्त किया जा रहा है, तब तो वह ग्राह्य है, अन्यथा अग्राह्य है । १. सूत्रकृतांग, १।३।४।१७ ३. वही, ११९।३५ ५. उत्तराध्ययन, ९।४४ २. वही, १८०१८ ४. वही, ११२।११९ ६. वही, ३२।१०१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy