________________
सम्यक् तप तथा योगमार्ग
११९
यह किसी एक आचार-दर्शन की बपौती नहीं, वह तो प्रत्येक जागृत आत्मा की अनुभूति है। उसकी अनुभूति से ही मन के कलुष धुलने लगते हैं, वासनाएँ शिथिल हो जाती हैं, अहं गलने लगता है । तृष्णा और कषायों की अग्नि तप की ऊष्मा के प्रकट होते ही निःशेष हो जाती है। जड़ता क्षीण हो जाती है । चेतना और आनन्द का एक नया आयाम खुल जाता है, एक नवीन अनुभूति होती है। शब्द और भाषा मौन हो जाती है, आचरण की वाणी मुखरित होने लगती है। ___ तप का यही जीवन्त और जागृत शाश्वत स्वरूप है जो सार्वजनीन और सार्वकालिक है । सभी साधना-पद्धतियाँ इसे मानकर चलती हैं और देश काल के अनुसार इसके किसी एक द्वार से साधकों को तप के इस भव्य महल में लाने का प्रयास करती हैं, जहाँ साधक अपने परमात्म स्वरूप का दर्शन करता है, आत्मन्, ब्रह्म या ईश्वर का साक्षात्कार करता है।
तप एक ऐसा प्रशस्त योग है जो आत्मा को परमात्मा से जोड़ देता है, आत्मा का परिष्कार कर उसे परमात्म-स्वरूप बना देता है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org