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________________ ११८ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन हमारा ध्यान आकर्षित किया है। इन सबके साथ आज चिकित्सक एवं वैज्ञानिक भी इसकी उपादेयता को सिद्ध कर चुके हैं । प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली का तो मूल आधार ही उपवास है। इसी प्रकार ऊनोदरी या भूख से कम भोजन, नियमित भोजन तथा रस-परित्याग का भी स्वास्थ्य की दृष्टि से पर्याप्त मूल्य है । साथ ही यह संयम एवं इन्द्रिय जय में भी सहायक है । गांधीजी ने तो इसी से प्रभावित हो ग्यारह व्रतों में अस्वाद व्रत का विधान किया था। यद्यपि वर्तमान युग भिक्षा-वृत्ति को उचित नहीं मानता है, तथापि समाज-व्यवस्था की दृष्टि से इसका दूसरा पहलू भी है । जैन आचार-व्यवस्था में भिक्षावृत्ति के जो नियम प्रतिपादित हैं वे अपने आप में इतने सबल हैं कि भिक्षावृत्ति के सम्भावित दोषों का निराकरण स्वतः हो जाता है। भिक्षावृत्ति के लिए अहं का त्याग आवश्यक है और नैतिक दृष्टि से उसका कम मूल्य नहीं है । इसी प्रकार आसन-साधना और एकांतवास का योग-साधना की दृष्टि से मूल्य है । आसन योग-साधना का एक अनिवार्य अंग है। तप के आभ्यन्तर भेदों में ध्यान और कायोत्सर्ग का भी साधनात्मक मूल्य है । पुनः स्वाध्याय, वैयावृत्य (सेवा) एवं विनय (अनुशासन) का तो सामाजिक एवं वैयक्तिक दोनों दृष्टियों से बड़ा महत्त्व है। सेवाभाव और अनुशासित जीवन ये दोनों सभ्य समाज के आवश्यक गुण हैं। ईसाई धर्म में तो इस सेवाभाव को काफी अधिक महत्त्व दिया गया है। आज उसके व्यापक प्रचार का एकमात्र कारण उसकी सेवा-भावना ही तो है। मनुष्य के लिए सेवाभाव एक आवश्यक तत्त्व है जो अपने प्रारम्भिक क्षेत्र में परिवार से प्रारम्भ होकर 'वसुधैव कुटुम्बकम्' तक का विशाल आदर्श प्रस्तुत करता है। स्वाध्याय का महत्त्व आध्यात्मिक विकास और ज्ञानात्मक विकास दोनों दृष्टियों से है। एक ओर वह स्व का अध्ययन है तो दूसरी ओर ज्ञान का अनुशीलन । ज्ञान और विज्ञान की सारी प्रगति के मूल में तो स्वाध्याय ही है । प्रायश्चित्त एक प्रकार से अपराधी द्वारा स्वयाचित दण्ड है। यदि व्यक्ति में प्रायश्चित्त की भावना जागृत हो जाती है तो उसका जीवन ही बदल जाता है। जिस समाज में ऐसे लोग हों, वह समाज तो आदर्श ही होगा। ___ वास्तव में तो तप के इन विभिन्न अंगों के इतने अधिक पहलू हैं कि जिनका समुचित मूल्यांकन सहज नहीं । तप आचरण में व्यक्त होता है । वह आचरण ही है । उसे शब्दों में व्यवत करना सम्भव नहीं है । तप आत्मा की ऊषा है, जिसे शब्दों में बाँधा नहीं जा सकता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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