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________________ भारतीय आचारदर्शन में ज्ञान की विधाएँ १. ज्ञान की दो विधाएँ ___ ज्ञान-प्राप्ति के दो साधन हैं----१. अनुभूति और २. बुद्धि । ज्ञान का क्षेत्र हो या आचारदर्शन का, हमारा अनुभव और हमारा बौद्धिक चिन्तन सत् के कम से कम दो पक्ष तो उपस्थित कर ही देता है । एक, वह जो दिखाई पड़ता है और दूसरा, वह जो इस दिखाई पड़नेवाले के मूल में है---एक, वह जो प्रतीति ( इन्द्रियानुभूति ) है और दूसरा, वह जो इस प्रतीति का आधार है। बुद्धि कभी भी इस बात से सन्तुष्ट नहीं होती कि जो कुछ प्रतीति है वह उस रूप में सत्य है, वरन वह स्वयं उस प्रतीति के पीछे झाँकना चाहती है, वह सत् के इन्द्रियगम्य स्थूल स्वरूप से सन्तुष्ट न होकर उसके सूक्ष्म और मूल स्वरूप तक जाना चाहती है। दृश्य से सन्तुष्ट न होकर उसकी तहतक प्रवेश करना मानवीय बुद्धि की नैसर्गिक प्रकृति है और जब अपने इस प्रयास में वस्तुतत्त्व के प्रतीत होनेवाले स्वरूप और उस प्रतीत के मूल में निहित बुद्धि-निर्दिष्ट स्वरूप में अन्तर पाती है, तो वह स्वतः प्रसूत इस द्विधा में पड़ जाती है कि इनमें से यथार्थ कौन है--प्रतीति का विषय, या तत्त्व का बुद्धि-निर्दिष्ट स्वरूप ? ___ चार्वाक दार्शनिकों, भौतिकवादियों, वैज्ञानिकों एवं अनुभववादियों ने वस्तुतत्त्व या सत् के इन्द्रियप्रदत्त ज्ञान को ही यथार्थ समझा और बुद्धिप्रदत्त उस ज्ञान को, जो इन्द्रियानुभूति का विषय नहीं हो सकता था, अयथार्थ कहा। दूसरी ओर कुछ बुद्धिवादी तथा अध्यात्मवादी दार्शनिकों ने उस इन्द्रियगम्य ज्ञान को अयथार्थ कहा जो बौद्धिक कसौटी पर खरा नहीं उतरता था। लेकिन ये एकांगी दृष्टिकोण समस्या का सही समाधान प्रस्तुत नहीं करते थे। यही कारण था कि प्रबुद्ध दार्शनिकों को अपनी व्याख्याओं के लिए सत् के सम्बन्ध में विभिन्न दृष्टिकोणों का अवलम्बन लेना पड़ा । जिन दार्शनिकों ने सत् की व्याख्या के सन्दर्भ में दृष्टिकोणों का अवलम्बन लेने से इनकार किया, वे एकांगी रह गये और उन्हें इन्द्रियजन्य सम्वेदनात्मक ज्ञान और तार्किक चिन्तनात्मक ज्ञान में से किसी एक को अयथार्थ मानकर उसका परित्याग करना पड़ा। सम्भवतः इस दार्शनिक समस्या के निराकरण एवं सत् के सन्दर्भ में सर्वांग दृष्टिकोण प्रस्तुत करने का प्रथम प्रयास जैन और बौद्ध आगमों में परिलक्षित होता है। जैन विचारधारा के अनुसार न तो इन्द्रियानुभूति ही असत्य है और न बुद्धिप्रदत्त ज्ञान ही । एक में सत् का वह ज्ञान है जिस रूप में हमारी इन्द्रियाँ उसे ग्रहण कर पाती हैं । दूसरे में सत् का वह ज्ञान है जिस रूप में वह है अथवा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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