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________________ ५०६ जैन, बौद्ध तथा गोता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन जब तक व्यक्ति इनसे ऊपर नहीं उठता है, वह नैतिक प्रगति नहीं कर सकता ।गुणस्थान आरोहण में यह तथ्य स्पष्ट रूप से वर्णित है कि नैतिक विकास की किस अवस्था में कितनी कषायों का क्षय हो जाता है और कितनी शेष रहती हैं । नैतिकता की सर्वोच्च भूमिका समस्त कषायों के समाप्त होने पर ही प्राप्त होती है । जैन-सूत्रों में इन चार प्रमुख कषयों को 'चंडाल चौकड़ी' कहा गया है। इनमें अनन्तानुबन्धी आदि जो विभाग है उनको सदैव ध्यान में रखना चाहिए और हमेशा यह प्रयत्न करना चाहिए कि कषायों में तीव्रता न आये, क्योंकि अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान माया, लोभ के होने पर साधक अनन्तकाल तक संसारपरिभ्रमण करता है और सम्यग्दृष्टि नहीं बन पाता है। यह जन्म मरण के रोग की असाध्यावस्था है। अप्रत्याख्यानी कषाय के होने पर साधक, श्रावक या गृहस्थ साधक के पद से गिर जाता है । यह साधक के आंशिक चारित्र का नाश कर देती है। यह विकारों की दुःसाध्यावस्था है। इसी प्रकार प्रत्याख्यानी कषाय की अवस्था में साधुत्व प्राप्त नहीं होता । इसे विकारों की प्रयत्नसाध्यावस्था कहा जा सकता है। साधक को अपने जीवन में उपर्युक्त तीनों प्रकार की कषायों को स्थान नहीं देना चाहिए, क्योंकि इससे उसकी साधना या चारित्र धर्म का नाश हो जाता है। इतना ही नहीं, साधक को अपने अन्दर संज्वलन कषाय को भी स्थान नहीं देना चाहिए, क्योंकि जब तक चित्त में सूक्ष्मतम क्रोध, मान, माया, और लोभ रहते हैं, साधक अपने लक्ष्य निर्वाण की प्राप्ति नहीं कर सकता । संक्षेप में अनन्तानुबन्धी चौकड़ी या कषायों की तीव्रतम अवस्था यथार्थ दृष्टिकोण की उपलब्धि में बाधक है। अप्रत्याख्यानी चौकड़ी या कषायों की तीव्रतर अवस्था आत्म-नियन्त्रण में बाधक है । प्रत्याख्यानी चौकड़ी या कषायों की तीव्र अवस्था श्रमण जीवन की घातक है। इसी प्रकार संज्वलन चौकड़ी या अल्प-कषाय पूर्ण निष्काम या वीतराग जीवन की उपलब्धि में बाधक है। इसलिए साधक को सूक्ष्मतम कषायों को भी दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए, क्योंकि इनके होने पर उसकी साधना में पूर्णता नहीं आ सकती। दशवकालिकसूत्र में कहा गया है कि आत्म-हित चाहनेवाला साधक पाप की वृद्धि करने वाले क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार दोषों को पूर्णतया छोड़ दे ।' नैतिक जीवन की साधना करने वाला इनको क्यों छोड़ दे ? इस तर्क के उत्तर में दशवकालिक सूत्र में इनकी सामाजिक एवं वैयक्तिक सद्गुणों का घात करनेवाली प्रकृति का भी विवेचन किया गया है-क्रोध प्रीति का, मान विनय (नम्रता) का, माया मित्रता का और लोभ सभी सद्गुणों का नाश कर देता है ।२ आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं कि १. दशवकालिक, ८।३७ २. वही, ८।३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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