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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
विचार ही है। केवल लोभ अकेला रागात्मक है, क्योंकि उसमें ममत्वभाव है । ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से केवल क्रोध ही द्वषरूप है। शेष कषाय-त्रिक को ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से न तो केवल राग-प्रेरित कहा जा सकता है न केवल द्वष-प्रेरित । राग-प्रेरित होने पर वे राग-रूप हैं और द्वेष-प्रेरित होने पर द्वष रूप होती हैं। चारों कषायें वासना के राग-द्वेषात्मक पक्षों को आवेगात्मक अभिव्यक्तियाँ हैं। वासना का तत्त्व अपनी तीव्रता की विधेयात्मक अवस्था में राग और निषेधात्मक अवस्था में द्वेष हो जाता है। ये ही राग और द्वष के भाव बाह्य आवेगात्मक अभिव्यक्ति में कषाय कहे जाते हैं। ___ कषाय के भेद-आवेगों की अवस्थाएँ भी तीव्रता (Intenstiy) की दृष्टि से समान नहीं होती हैं, अतः तीव्र आवेगों को कषाय और मंद आवेग या तीव्र आवेगों के प्रेरकों को नो-कषाय (उप कषाय) कहा गया है । कषायें चार है-१. क्रोध २. मान, ३.माया और ४. लोभ । आवेगात्मक अभिव्यक्तियों की तीव्रता के आधार पर इनमें से प्रत्येक को चार-चार भागों में बाँटा गया है-१. तोवतम, २. तीव्रतर, ३. तीव्र और ४. अल्प। नैतिक दृष्टि से तोव्रतम क्रोध आदि व्यक्ति के सम्यक् दृष्टिकोण में विकार ला देते हैं । तीव्रतर क्रोध आदि आत्म-नियन्त्रण की शक्ति को छिन्न-भिन्नकर डालते हैं । तीव्रक्रोध
आदि आत्म-नियन्त्रण की शक्ति के उच्चतम विकास में बाधक होते हैं। अल्प क्रोध आदि व्यक्ति को पूर्ण वीतराग नहीं होने देते। चारों कषायों के तीव्रता के आधार पर चारचार भेद हैं । अतः कषायों की संख्या १६ हो जाती हैं । निम्न नौ उप-आवेग, उप-कषाय या कषाय-प्रेरक माने गये हैं-१. हास्य, २. रति, ३. अरति, ४. शोक, ५. भय, ६ घृणा, ७. स्त्रीवेद (पुरुष-सम्पर्क को वासना), ८. पुरुषवेद (स्त्री-सम्पर्क को वासना), ९. नपुंसकवेद (दोनों के सम्पर्क की वासना)। इस प्रकार कुल २५ कषायें हैं । क्रोध
यह एक मानसिक किन्तु उत्तेजक आवेग है । उत्तेजित होते ही व्यक्ति भावाविष्ट हो जाता है। उसकी विचार-क्षमता और तर्क-शक्ति लगभग शिथिल हो जाती है । भावात्मक स्थिति में बढ़े हुए आवेश की वृत्ति युयुत्सा को जन्म देती है । युयुत्सा से अमर्ष और अमर्ष से आक्रमण का भाव उत्पन्न होता है । मनोवैज्ञानिकों के अनुसार क्रोध और भय में यही मुख्य अन्तर है कि क्रोध के आवेश में आक्रमण का और भय के आवेश में आत्म-रक्षा का प्रयत्न होता है ।।
जैन-विचार में सामान्यतया क्रोध के दो रूप मान्य हैं-१. द्रव्य-क्रोध २. भाव-क्रोध । द्रव्य-क्रोध को आधुनिक मनोवैज्ञानिक दृष्टि से क्रोध का आंगिक पक्ष कहा जा सकता है, जिसके कारण क्रोध में होनेवाले शारीरिक परिवर्तन होते हैं । भावक्रोध क्रोध की १. विशेषावश्यक भाष्य, २६६८-२६७१ २. तुम अनन्तशक्ति के स्रोत हो, पृ०४७ ३. अभिधान राजेन्द्र कोश, खण्ड ३, पृ० ३९५ ४. भगवती सूत्र, १२।५।२
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