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मनोवृत्तियाँ ( कषाय एवं लेश्याएं)
जैन दर्शन में मनोवृत्तियों के विषय में दो प्रमुख सिद्धान्त हैं - १. कषाय-सिद्धान्त और २. लेश्या - सिद्धान्त । कषाय-सिद्धात में चित्त-क्षोभ को उत्पन्न करनेवाली अशुभ मनोवृत्तियों या मनोवेगों का प्रतिपादन है और लेश्या - सिद्धान्त का सम्बन्ध शुभ एवं अशुभ दोनों प्रकार की मनोवृत्तियों से है ।
कषाय-सिद्धान्त
समूचा जगत् वासना से उत्पन्न कषाय की अग्नि से झुलस रहा है । अतएव शान्तिमार्ग के पथिक साधक के लिए कषाय का त्याग आवश्यक है । जैन - सूत्रों में साधक को कषायों से सर्वथा दूर रहने के लिए कहा गया है । दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है कि अनिग्रहित क्रोध और मान तथा बढ़ती हुई माया तथा लोभ - ये चारों संसार बढ़ानेवाली कषायें पुनर्जन्म रूपी वृक्ष का सिंचन करती हैं, दुःख का कारण हैं अतः शान्ति का साधक उन्हें त्याग दे । १
कषाय का अर्थ - कषाय जैनधर्म का पारिभाषिक शब्द है । यह 'कष' और 'आय' इन दो शब्दों के मेल से बना है । 'कष' का अर्थ है संसार, कर्म अथवा जन्ममरण । जिसके द्वारा प्राणी कर्मों से बांधा जाता है, अथवा जिससे जीव पुनः पुनः जन्ममरण के चक्र में पड़ता है, वह कषाय है । जो मनोवृत्तियाँ आत्मा को कलुषित करती हैं उन्हें जैन- मनोविज्ञान की भाषा में कषाय कहा जाता है । कषाय अनैतिक मनोवृत्तियाँ हैं ।
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कषाय की उत्पत्ति - वासना या कर्म - संस्कार से राग, द्वेष और राग-द्वेष से कषाय उत्पन्न होते हैं । स्थानांगसूत्र में कहा गया है कि पाप कर्म के दो स्थान हैं- - राग और द्वेष | राग से माया और लोभ तथा द्वेष से क्रोध और मान उत्पन्न होते हैं । राग-द्वेष का कषायों से क्या सम्बन्ध है इसका वर्णन विशेषावश्यकभाष्य में विभिन्न नयों ( दृष्टिकोणों) के आधार पर किया गया है । संग्रह नय के विचार से क्रोध और मान द्वेष रूप हैं, जबकि माया और लोभ राग रूप हैं । क्योंकि प्रथम दो में दूसरे की अहितभावना है और अन्तिम दो में अपनी स्वार्थ साधना का लक्ष्य है । व्यवहारनय की दृष्टि से क्रोध, मान और माया तीनों द्वेष रूप हैं, क्योंकि माया भी दूसरे के विघात का
२. देखिए - अभिधान राजेन्द्र कोश, खण्ड ३, पृ० ३९५
१. दशवैकालिक, ८ ४० ३. स्थानांग, २-२
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