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जैन, बौद्ध तथा गोता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन वार्यतया पदच्युत हो जाता है । जिस दमन को आधुनिक मनोविज्ञान में व्यक्तित्व के विकास में बाधक माना गया है, वही विचारणा जैनदर्शन में भी मौजूद थी। जैन विचारणा के अनुसार यदि कोई साधक उपशम (दमन) के आधार पर नैतिक तथा आध्यात्मिक प्रगति करता है, तो वह अपने लक्ष्य के अत्यधिक निकट पहुँचकर भी पुनः पतित हो जाता है। जैन-दर्शन की पारिभाषिक शब्दावली में कहें तो उपशम एवं क्षयोपशम मार्ग का साधक आध्यात्मिक पूर्णता के १४ गुणस्थानों में से ११ वें गुणस्थान तक पहुंच कर वहां से गिरता है और पुनः प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में आ जाता है । यह तथ्य जैन साधना में दमन के अनौचित्य को स्पष्ट कर देता है ।
बौद्ध-दर्शन में दमन का अनौचित्य-बुद्ध के मध्यममार्ग के उपदेश का सार यही है कि आध्यात्मिक विकास के मार्ग में वासनाओं का दमन इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है, जितना उनसे ऊपर उठ जाना। वासनाओं के दमन का मार्ग और वासनाओं के भोग का मार्ग दोनों ही बुद्ध की दृष्टि में साधना के सच्चे मार्ग नहीं हैं। भगवान् बुद्ध ने जिस मध्यममार्ग का उपदेश दिया, उसका आशय यही था कि साधना में दमन पर जो अत्यधिक जोर दिया जा रहा था, उसे कम किया जाये । बौद्ध-साधना का आदर्श तो चित्तशान्ति है, जबकि दमन तो चित्त-क्षोभ या मानसिक द्वन्द्व को ही जन्म देता है । बौद्धाचार्य अनंगवज्र कहते हैं कि चित्त क्षुब्ध होने से कभी भी मुक्ति नहीं होती । अतः इस तरह बरतना चाहिए कि जिससे मानसिक क्षोभ उत्पन्न न हो । दान की प्रक्रिया चित्त-क्षोभ की प्रक्रिया है-चित्त-शान्ति की नहीं । शान्तिभिक्षुशास्त्री बोधिचर्यावतार की भूमिका में लिखते हैं कि "बुद्ध के धर्म में जहां दूसरे को पीड़ा पहुँचाना पाप माना गया है, वहाँ अपने को पीड़ा देना भी अनार्य-कर्म कहा गया है । सौगततन्त्र ने भी आत्म-पीड़न के मार्ग को ठीक नहीं समझा। क्या दमन मात्र से चित्त-विक्षोभ सर्वथा चला जाता होगा ? दबायी हुई वृत्तियाँ जागृतावस्था में न सही स्वप्नावस्था में तो अवश्य ही चित्त को मथ डालती होंगी ।" जब तक भोगलिप्सा है तब तक चित्त-क्षोभ का उत्पन्न होना स्वाभाविक है । इस प्रकार बौद्ध-विचारणा को दमन का प्रत्यय अभिप्रेत नहीं है । दमन के विरोध में उठी खड़ी बौद्ध-विचारणा की चरम परिणति चाहे वामाचार के रूप में हुई हो, लेकिन उसका दमन का विरोध तो अवास्तविक नहीं कहा जा सकता है । चित्त-शान्ति के साधना-मार्ग में दमन का महत्वपूर्ण स्थान नहीं हो सकता।
गीता में दमन का अनौचित्य--यदि गहराई से देखें तो गीता भी दमन या निग्रह के अनौचित्य को स्वीकार करती है । गीता में कहा गया है कि प्राणी अपनी प्रकृति के १. देखिए--गुणस्थानारोहण २. प्रज्ञोपाय विनिश्चय ५।४० उद्धृत-बोधिचर्यावतार भूमिका, पृ० २० ३. बोधिचर्यावतार भूमिका, पृ० २०
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