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________________ ४८० जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन स्थान इष्ट है । जहां तक भावमन के स्थान का प्रश्न है उसका स्थान आत्मा ही है, क्योंकि आत्मप्रदेश सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है । अतः भावमन का स्थान भी सम्पूर्ण शरीर ही सिद्ध होता है । बौद्ध-दर्शन में मन को हृदय प्रदेशवर्ती माना गया है, जो कि दिगम्बर सम्प्रदाय की द्रव्यमन विषयक मान्यता के निकट है । सांख्य-परम्परा श्वेताम्बर-परम्परा के निकट है । पं० सुखलालजी का कथन है कि सांख्य-परम्परा के अनुसार मन का स्थान केवल हृदय नहीं माना जा सकता, क्योंकि उस परम्परा के अनुसार मन सूक्ष्म या लिङ्गशरीर में जो अष्टादश तत्त्वों का विशिष्ट निकाय रूप है, प्रविष्ट है और सूक्ष्म शरीर का स्थान समस्त स्थूल शरीर ही मानना उचित जान पड़ता है । अतएव उस परम्परा के अनुसार मन का स्थान समग्र स्थूल शरीर सिद्ध है ।। जैन-दर्शन में द्रव्यमन और भावमन को कल्पना-जैन नैतिक विचारणा में बन्धन के लिए अमूर्त चेतन आत्म-तत्त्व और जड़ कर्म-तत्त्व का जो सम्बन्ध स्वीकृत है, उसकी व्याख्या के लिए मन के स्वरूप का यही सिद्धान्त अभिप्रेत है; अन्यथा जैन-दर्शन की बन्धन और मुक्ति को धारणा ही असम्भव होगी । वेदान्तिक अद्वैतवाद, बौद्ध विज्ञानवाद एवं शून्यवाद के निरपेक्ष दर्शनों में सम्बन्ध की समस्या ही नहीं आती । सांख्य-दर्शन आत्मा को कूटस्थ मानता है । अतः वहाँ भी पुरुष और प्रकृति के सम्बन्ध की कोई समस्या नहीं है । इसलिए वे मन को एकांत जड़ अथवा चेतन मानकर अपना काम चला लेते हैं लेकिन जड़ और चेतन के मध्य सम्बन्ध मानने के कारण जैन-दर्शन के लिए मन को उभयरूप मानना आवश्यक है। जैन-विचार में मन उभयात्मक होने के कारण ही जड़ कर्मवर्गणा और चेतन-आत्मा के मध्य योजक कड़ी बन गया है । मन की शक्ति चेतना में है और उसका कार्य-क्षेत्र भौतिक जगत् है । जड़ पक्ष की ओर से वह भौतिक पदार्थों से प्रभावित होता है और चेतन-पक्ष की ओर से आत्मा को प्रभावित करता है । इस प्रकार जैन-दार्शनिक मन के द्वारा आत्मा और जड़ तत्त्व के मध्य अपरोक्ष सम्बन्ध बना देते हैं और इस सम्बन्ध के आधार पर ही अपनी बन्धन को धारणा को सिद्ध करते हैं । मन, जड़ और चेतन के मध्य अवस्थित एक ऐसा माध्यम है जो दोनों स्वतंत्र सत्ताओं में सम्बन्ध बनाये रखता है। जब तक यह माध्यम रहता है, तभी तक जड़ एवं चेतन जगत् में पारस्परिक प्रभावकता रहती है, जिसके कारण बन्धन का सिलसिला चलता रहता है। निर्वाण की प्राप्ति के लिए पहले मन के इन उभय पक्षों को अलग करना होता है। इससे मन की शक्ति क्षीण होने लगती है और अन्त में मन का विलय हो जाने पर निर्वाण प्राप्त हो जाता है। निर्वाण-दशा में उभयात्मक मन का ही अभाव होने से बन्धन को सम्भावना नहीं रहती। द्रव्यमन और भावमन का सम्बन्ध-जैन विचारधारा मन के अभौतिक और भौतिक पक्षों को स्वीकार करके ही संतोष नही मान लेती, वरन् उभयात्मक मन के १-२. दर्शन और चिन्तन, भाग १, पृ० १४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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