SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 526
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७ मन का स्वरूप तथा नैतिक जीवन में उसका स्थान समग्र संकल्प, इच्छाएँ, कामनाएँ, एवं राग-द्वेष की वृत्तियाँ आदि अधिकांश नैतिक प्रत्यय मनःप्रसूत हैं, मन ही सद्-असद् का विवेक करता है। यही हमारे शुभाशुभ भावों का आधार है, अतः मन के स्वरूप पर भी विचार कर लेना आवश्यक है। $ मन का स्वरूप __ मन के स्वरूप-विश्लेषण की प्रमुख समस्या यह है कि मन भौतिक तत्त्व है अथवा चेतन तत्त्व है ? जैन, बौद्ध और गीता के आचार-दर्शन इस विषय में तीन भिन्न-भिन्न विचार रखते हैं-१. बौद्ध-दर्शन मन को चेतन तत्त्व मानता है। २. गीता सांख्य-दर्शन के अनुरूप मन को जड़ प्रकृति से ही उत्पन्न और त्रिगुणात्मक मानती है।' ३. जैन-दर्शन मन को भौतिक और अभौतिक दोनों मानता है। जैन-परम्परा से मिलता-जुलता दृष्टिकोण योग-वाशिष्ठ में मिलता है। यद्यपि योगवाशिष्ठ के निर्वाण-प्रकरण में मन को जड़ कहा गया है और उसकी गतियों को जड़ पाषाण खण्ड के समान अन्य से नियोजित माना गया है, तथापि मन को जैन-विचारणा के समान जड़-चेतन उभयरूप भी माना गया है। द्रव्यमन और भावमन-जैन-विचार में मन के भौतिक रूप को द्रव्य-मन और चेतनरूप को भावमन कहा गया है। द्रव्य-मन मनोवर्गणा नामक परमाणुओं से बना हुआ है । यह मन का आंगिक एवं संरचनात्मक पक्ष है । साधारणतया इसमें शरीर के सभी ज्ञानात्मक एवं संवेदनात्मक अंग आ जाते हैं । मनोवर्गणा के परमाणुओं से निर्मित उस भौतिक-रचना-तन्त्र में प्रवाहित होनेवाली चैतन्यधारा भावमन है। दूसरे शब्दों में इस रचना-तंत्र को आत्मा से मिली हुई ज्ञान, वेदना एवं संकल्प की चैतन्य-शक्ति ही भावमन है। मन शरीर के किस भाग में स्थित है ?--एक प्रश्न यह भी उठता है कि द्रव्यमन और भावमन शरीर के किस भाग में स्थित हैं ? दिगम्बर-परम्परा के ग्रन्थ गोम्मटसार जीवकाण्ड में द्रव्यमन का स्थान हृदय माना गया है, जबकि श्वेताम्बर आगम ग्रन्थों में ऐसा कोई निर्देश नहीं है कि मन शरीर के किस विशेष भाग में स्थित है । पं० सुखलालजी यह मानते हैं कि श्वेताम्बर-परम्परा को समग्र स्थूल-शरीर ही द्रव्यमन का १. गीता, ७।४, १३।५ २. योगवाशिष्ठ निर्वाण प्रकरण, ७८।२१, ३९१३१३।९१।३७, ३९५।४०,३।९६०४१ ३. अभिधानराजेन्द्र, खण्ड ६, पृ०७४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy