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$ नैतिकता का क्षेत्र संकल्पयुक्त कर्म
पाश्चात्य दृष्टिकोण – म्यूरहेड कहते हैं कि हम आचार को ऐच्छिक क्रियाओं के रूप में परिभाषित कर सकते हैं, अतः पाश्चात्य चिन्तन के अनुसार नैतिक निर्णय केवल उन ऐच्छिक कर्मों पर ही दिये जा सकते हैं, जो किसी विवेकबुद्धि-सम्पन्न कर्ता द्वारा स्वतंत्र संकल्पपूर्वक सम्पादित किये गये हों । अचेतन प्राकृतिक घटनाएँ नैतिकता की परिधि में नहीं आतीं, क्योंकि उनका कोई चेतन - कर्ता नहीं होता । इसी प्रकार पशु, बालक, पागल और मूर्ख लोगों के कर्म भी नैतिक निर्णय के विषय नहीं माने गये हैं, क्योंकि इनमें शुभाशुभ का विवेक नहीं होता । इसी प्रकार बाध्यतामूलक कर्म, चाहे उनकी वह बाध्यता भौतिक हो, अन्य व्यक्तियों की अधीनता की हो अथवा भावना ग्रन्थियों या सम्मोहनजनित हो, नैतिक निर्णय की परिधि में नहीं आते; क्योंकि उनमें स्वतंत्र संकल्प का अभाव होता है । इस प्रकार पाश्चात्य आचार-दर्शन में नैतिकता की परिधि में आनेवाले कर्म के लिए तीन बातें आवश्यक हैं - १. शुभाशुभ विवेक-क्षमता, २. कर्म-संकल्प और ३. कर्म- संकल्प का स्वतंत्र होना । इन तीन बातों में किसी एक का अभाव होने पर कर्म नैतिक निर्णय का विषय नहीं बनता । पाश्चात्य आचार-दर्शन के अनुसार निम्न अनैच्छिक क्रियाएँ सामान्यतया नैतिक निर्णय का विषय नहीं मानी जाती हैं -- १. स्वतःचालित क्रियाएं -- जैसे खून की गति, पाचन क्रिया आदि, २. प्रतिवर्ती क्रियाएं - जैसे छोक, पलक झपकना, ३. अनियमित क्रियाएँ - जैसे बच्चे का हाथ-पैर मारना, ४ मूलप्रवृत्तिजन्य क्रियाएँ - जो मनोशरीरिक विन्यास के कारण होती हैं, ५. विचारप्रेरित कर्म - जो विचार से प्रेरित होते हुए भी विचार नियन्त्रित नहीं होते हैं ।
जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
जैन दृष्टिकोण -- सामान्यतया जैन आचार-दर्शन भी ऐच्छिक कर्मों को उचित अथवा अनुचित की श्रेणी में मानता है और उनके औचित्य एवं अनौचित्य का निर्धारण भी कर्म के संकल्प के आधार पर ही करता है। फिर भी जैन दर्शन कुछ अनैच्छिक कही जानेवाली क्रियाओं को भी नैतिकता की श्रेणी में ले आता है । जैन विचारक यह तो मानते हैं कि अधिकांश अनैच्छिक शारीरिक क्रियाओं का करना शरीर का अनिवार्य धर्म होने के कारण भी आवश्यक होता है । उन्हें रोकने अथवा करने या नहीं करने की सामर्थ्य तो वैयक्तिक संकल्प में नहीं है, फिर भी उनके सम्पन्न करने का ढंग व्यक्ति की इच्छा के अधीन है । मनोवैज्ञानिक भी इसे स्वीकार करते हैं कि मनुष्य में अनैच्छिक और अनर्जित कहा जानेवाला मूलप्रवृत्यात्मक व्यवहार वस्तुतः अर्जित और ऐच्छिक ही होता है । अनिवार्य शरीरिक क्रियाओं के करने और नहीं करने का प्रश्न तो
1. We may define conduct as volentary action.
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—The Elements of Ethics, p. 46.
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