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________________ जैन आचारदर्शन का मनोवैज्ञानिक पक्ष चेतन जीवन के तीन अंग हैं-१. ज्ञान, २. भाव, और ३. संकल्प । जैन विचारकों की दृष्टि में ये तीन अंग जैन आचार-दर्शन में नैतिक आदर्श एवं नैतिक साधना-मार्ग से निकट रूप से सम्बन्धित हैं। जैन आचार-दर्शन में चेतना के इन तीन अंगों के आधार पर ही नैतिक आदर्श का निर्धारण किया गया है। जैन नैतिक आदर्श अनन्तचतुष्टय रूप है, जो जीवन के इन तीन अंगों की पूर्णता का द्योतक है । जीवन के ज्ञानात्मक अंग की पूर्णता अनन्तज्ञान एवं अनन्तदर्शन में, भावात्मक अंग की पूर्णता अनन्तसौख्य में और संकल्पात्मक अंग की पूर्णता अनन्तशक्ति में मानी गई है । जैन नैतिक साधना-पथ भी ज्ञान, भाव और संकल्प (कर्म) के सम्यक् रूपों से ही निर्मित है । ज्ञान से सम्यग्ज्ञान, भाव से सम्यकदर्शन (श्रद्धा), संकल्प से सम्यक्चारित्र का निर्माण हुआ है । ज्ञान, भाव और संकल्प सम्यक् बनकर ही जैन नैतिकता का साधना पथ बना देते हैं। चेतन-जीवन के विविध पक्ष और नैतिकता-चेतना के तीन पक्षों ज्ञान, वेदना और संकल्प का नैतिकता से क्या सम्बन्ध है, यह विचारणीय है । यह प्रश्न स्वाभाविक रूप में बड़ा महत्त्वपूर्ण है कि क्या हमारा ज्ञान और वेदना भी नैतिकता से सम्बन्धित है? जैन विचारकों एवं गीताकार की दृष्टि में व्यक्ति के ज्ञान एवं वेदना का नैतिकता से सीधा सम्बन्ध तो नहीं हैं, लेकिन सामान्य व्यक्ति का ज्ञान और वेदना मात्र विशुद्ध नहीं रहते, वरन् वे किसी राग-द्वेष और आसक्ति रूपी मानसिक संकल्प में बदल जाते हैं । जैसे रूप या सौन्दर्य का बोध कोई पाप या अनैतिकता नहीं है, लेकिन जब उसी रूप या सौन्दर्य को राग-भाव से देखा जाता है अथवा उसे देखकर मन में राग या आसक्ति उत्पन्न होती है, वह देखना उसी क्षण नैतिकता की परिधि में आ जाता है । साधारण प्राणियों का ज्ञान या अनुभूतियाँ अपने विशुद्ध रूप में नहीं रह कर 'संकल्प से युक्त होती हैं'-वे या तो किसी पूर्ववर्ती राग-द्वेष से सम्बन्धित होती हैं अथवा अन्त में किसी राग, द्वेष अथवा आसक्ति की मनोवृत्ति में परिणत हो जाती हैं और ऐसी अवस्था में वे सभी क्रियाएँ नैतिकता की परिसीमा में आ जाती हैं। इसी प्रकार मात्र शारीरिक क्रियाएँ भी जब तक संकल्प से युक्त नहीं होतीं, नैतिकता की परिसीमा में नहीं आती हैं लेकिन संकल्प से युक्त होने पर वे भी नैतिकता की परिधि में आ जाती है । जैन-दर्शन, बौद्ध दर्शन और गीता की नैतिकता का आदर्श यही है कि ज्ञानात्मक एवं वेदनात्मक चेतनाएँ तथा शारीरिक क्रियाएँ (अनैच्छिक क्रियाएँ) विशुद्ध रूप में रहें और संकल्पात्मक पक्ष अर्थात् रागादि भावों से प्रभावित न हों। क्योंकि रागादि संकल्पों से युक्त कर्म ही नैतिक निर्णय के विषय बनते हैं । जब तक ज्ञान और वेदना एवं शारीरिक क्रिया संकल्प में परिणत या संकल्प से परिचालित नहीं होतीं वे नैतिकता की परिसीमा में नहीं जाती । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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