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________________ मैतिकता, धर्म और ईश्वर ४४५ नेतिक साध्य के रूप में ईश्वर-जैन और बौद्ध विचारणाओं में कर्म-नियामक के रूप में ईश्वर का प्रत्यय अस्वीकृत रहा है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि उनमें ईश्वर या परमात्मा का प्रत्यय नहीं है। योग दर्शन के समान जैन और बौद्ध परम्पराओं में साधना के आदर्श के रूप में ईश्वर का विचार उपस्थित है । जन-साधना का आदर्श भी गीता के समान परमात्मा की उपलब्धि ही रहा है। बौद्ध-दर्शन में साधना के आदर्श के रूप में तथागत-काय या धर्मकाय को स्वीकार किया गया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन, बौद्ध और गीता तीनों ही परम्पराओं में साधना के आदर्श के रूप में ईश्वर का विचार स्वीकृत है । जैन-परम्परा में नैतिक जीवन का साध्य जिस सिद्धावस्था की प्राप्ति माना गया है, वह उसमें स्वीकृत परमात्मा के प्रत्यय को स्पष्ट कर देती है। जैन विचारणा के अनुसार यह आत्मा अपने तात्त्विक शुद्ध स्वरूप में परमात्मा ही है और इसी शुद्ध स्वरूप या परमात्मा की उपलब्धि नैतिक जीवन का साध्य है । यद्यपि जैन परम्परा और गीता दोनों में ही परमात्मा को उपलब्धि को नैतिक जीवन का साध्य बताया गया है, तथापि दोनों में थोड़ा तात्त्विक अन्तर है। जैन परम्परा के अनुसार यह परमात्मत्व व्यक्ति में स्वयं ही प्रसुप्त है और साधना के द्वारा हमें उसे प्रकट करना है। तत्त्वतः प्रत्येक आत्मा परमात्मा है और मात्र उसे प्रकट करना है। साध्य के रूप में परमात्मा हमसे भिन्न नहीं है, वरन् वह हमारी ही शुद्ध सत्ता की अवस्था है। साधना के आदर्श के रूप में जिस परमात्मा को स्वीकार करते हैं, वह हमारी ही शुद्ध, तात्त्विक एवं राग-द्वेष और कर्ममल से रहित स्थिति है । साध्य परमात्मा भी हममें ही निहित है । जैन-दर्शन में प्रत्येक आत्मा का साध्य अपने में निहित परमात्मत्व को प्रकट करना है और इस रूप में उसमें प्रत्येक आत्मा ही परमात्मा मानी गई है। अतः परमात्मा ऐसा कोई बाह्य आदर्श या साध्य नहीं है, जो व्यक्ति से भिन्न हो। हमें वही पाना है जो हममें विद्यमान है और हमारी सत्ता का सार है। इस प्रकार जैन-दर्शन में प्रत्येक व्यक्ति का साध्य या परमात्मा अलग-अलग है । यद्यपि स्वरूप दृष्टि से सभी में निहित परमात्मत्व समान है, तथापि सत्ता की दृष्टि से वह भिन्न-भिन्न है । गीता के अनुसार भी नैतिक जीवन का साध्य परमात्मा की उपलब्धि ही है और परमात्मा को हमारी सत्ता का सार बताया गया है, फिर भी गीता का विचार जैनदर्शन से इस अर्थ में भिन्न है कि गीता में प्रत्येक जीवात्मा परमात्मा का अंश है जबकि जैन दर्शन में प्रत्येक जीवात्मा स्वयं ही परमात्मा है । गीता के अनुसार नैतिक साध्य के रूप में हमें जिसे प्राप्त करना है, वह पूर्ण है; जिसके हम अंश हैं। गीता का नैतिक साध्य या परमात्मा आधार है और साधक जीवात्मा आधारित है, जबकि जैन-दर्शन में साध्य परमात्मा और साधक जीवात्मा दोनों एक ही हैं। उनमें न तो अंश और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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