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जैन, बौद्ध तथा गोता के आधारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
नहीं हो सकता । लेकिन तिलक स्वयं स्वीकार करते हैं कि "कर्म प्रवाह अनादि है और जब एक बार कर्म का चक्कर शुरू हो जाता है तब परमेश्वर भी उसमें हस्तक्षेप नहीं करता ।” तिलक एक ओर कर्म प्रवाह को अनादि मानना चाहते हैं और दूसरी ओर उसके चालक के रूप में ईश्वर को भी स्थान देना चाहते हैं तथा इस प्रयास में एक साथ आत्मविरोधी कथन करते हैं । 'कर्म-प्रवाह अनादि है और जब एक बार कर्म का चक्कर शुरू हो जाता है, यह वाक्य आत्म-विरोधी है । जो अनादि है उसका आरम्भ नहीं हो सकता और जिसका आरम्भ नहीं है उसका कोई चालक भी नहीं हो सकता ।
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जैन मान्यता यह है कि यद्यपि जड़-कर्म चेतन शक्ति के अभाव में स्वतः फल नहीं दे सकते, लेकिन इसके साथ ही वे यह भी स्वीकार करते हैं कि कर्मों को अपना फल प्रदान करने के लिए कर्ता से भिन्न अन्य चेतन सत्ता की अथवा ईश्वर की आवश्यकता नहीं है । कर्मों के कर्ता चेतन आत्मा के द्वारा स्वयं ही वासना एवं कषायों की तीव्रता के आधार पर कर्म विपाक का प्रकार, कालावधि, मात्रा और तीव्रता का निश्चय हो जाता है । यह आत्मा स्वयं ही अपने कर्मों का कर्ता है और स्वयं ही उनका फल प्रदाता बन जाता है । यदि हम यह मान लें कि प्रत्येक जीवात्मा अपने शुद्ध स्वरूप की दृष्टि से परमात्मा ही है तो फिर हम चाहे ईश्वर को कर्म-नियम का नियामक और फल प्रदाता कहें या जीवात्मा को स्वयं ही अपने कर्मों का कर्ता और फल प्रदाता मानें, स्थिति में कोई अन्तर नहीं पड़ता है । आचार्य हरिभद्र इसी समन्वयात्मक भूमिका का स्पर्श करते हुए कहते हैं कि "जीव मात्र तात्त्विक दृष्टि से परमात्मा ही है और वही स्वयं अपने अच्छे-बुरे कर्मों का कर्ता और फलप्रदाता भी है । इस तात्त्विक दृष्टि से कर्म नियंता के रूप में ईश्वरवाद भी निर्दोष और व्यवस्थित सिद्ध हो जाता है ।" इस प्रकार जैन दर्शन और गीता की विचार - दृष्टि में भी सामान्यतया वह अन्तर नहीं है जो मान लिया गया है ।
कर्म नियंता ईश्वर का विचार बौद्ध परम्परा में भी प्रायः उसी रूप में अस्वीकृत रहा है, जिस रूप में वह जैन- परम्परा में अस्वीकृत रहा है । बौद्ध परम्परा भी जैन परम्परा के समान कर्म - नियम के निर्माता और कर्मों के फल प्रदाता ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करती । गीता के कृष्ण के समान महावीर और बुद्ध भी महा कारुणिक हैं । वे प्राणियों को दुःखों से उबारने की भावना रखते हैं, लेकिन उनकी यह करुणा कर्म-नियम से ऊपर नहीं है । प्राणियों की दुःख विमुक्ति के लिए वे केवल दिशानिर्देशक हैं, विमुक्त कर्ता नहीं । दुःखों से विमुक्ति तो प्राणी स्वयं अपने ही पुरुषार्थ से पाता है । वे मार्ग बतानेवाले हैं, गति तो स्वयं व्यक्ति को ही करना है ।
१. गीतारहस्य, पृ० २७२
२. शास्त्रवार्तासमुच्चय, २०७
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