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________________ ४३८ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन उसे भाव के अतिरेक और उत्साहपूर्ण आलिंगन के अर्थ में लेना चाहिए, जहाँ कठोर अर्थों में तथाकथित नैतिकता केवल सिर झुका देती है और राह छोड़ देती है ।''. धर्म और नैतिकता के इस गठबन्धन को, जिसे भारतीय विचारकों ने स्वीकार कर लिया था, तोड़ देने पर नैतिक विचारणा की दृष्टि से अनेक वैचारिक कठिनाइयों की उद्भावना सम्भव थी। अतः अनेक विचारकों ने इस सम्बन्ध को बनाये रखा । यद्यपि इस बात को लेकर विचारकों में मतभेद रहा कि धर्म और नैतिकता में कौन प्राथमिक है। देकार्त, लाक प्रभृति विचारक ईश्वरीय आदेश से नैतिक नियमों की उत्पत्ति मानने के कारण धर्म को नैतिकता से पहले मानते हैं। उधर कांट, मैथ्यू आर्नल्ड, मार्टिन आदि नैतिकता पर धर्म को अधिष्ठित करते हैं। कांट के अनुसार धर्म नैतिकता पर आधारित है और ईश्वर का अस्तित्व नैतिकता के अस्तित्व के कारण है । ईश्वर नीतिशास्त्र की आधारभूत मान्यता है । मैथ्यू आर्नल्ड का कथन है कि "भावना से युक्त नैतिकता ही धर्म है।" धर्म और नैतिकता को अलग-अलग मानकर उनके सम्बन्धों की व्याख्या करना अपने में असंगत है । ज्ञान और श्रद्धा जिनके आधार पर इन्हें अलग-अलग किया जाता है, निरपेक्ष रूप में अलग-अलग नहीं हैं। गीता में ज्ञान, भक्ति और कर्म, बौद्ध-दर्शन में शील, समाधि और प्रज्ञा तथा जैन-दर्शन में सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र को निरपेक्षरूपेण भिन्न-भिन्न नहीं माना गया है। भारतीय चिन्तन की इस सही दिशा के समान पश्चिम में भी ब्रेडले और प्रिंगल पेटीसन आदि कुछ विचारकों ने सोचने का प्रयास किया है। ब्रेडले का कथन है कि नैतिकता से परे जाना नैतिक कर्तव्य है और वह कर्तव्य है धार्मिक होना । यहाँ पूर्व और पश्चिम के नैतिक चिन्तन में धर्म और नैतिकता की एकरूपता या विभिन्नता का यह विचार-भेद समाप्त हो जाता है। ब्रेडले नैतिकता और धर्म के लिए दो अलग शब्दों का प्रयोग करते हैं। जब वे कहते हैं कि नैतिकता धर्म में समाप्त हो जाती है, तो उनका अर्थ नैतिकता के अस्तित्व का निषेध नहीं है। धर्म न तो नैतिकता-विहीन है, न नैतिकता धर्म-विहीन है । नैतिकता और धर्म आत्मपूर्णता दिशा में दो अवस्थाएं हैं । नैतिक पूर्णता का आदर्श वास्तविक नहीं होता वरन् वह पूर्णता की दिशा में मात्र प्रक्रिया है, जबकि धार्मिक आदर्श वास्तविक पूर्ण होता है। ब्रेडले के अनुसार यह असम्भव है कि एक व्यक्ति धार्मिक होते हुए भी अनैतिक आचरण करे। ऐसी स्थिति में या तो वह धर्म का ढोंग कर रहा है अथवा उसका धर्म ही मिथ्या है। ब्रेडले शुभाशुभ की सीमारेखा तक नैतिकता का क्षेत्र १. वेराइटीज़ आफ रिलीजियस एक्सपीरियंसेज; उद्धृत-नीतिशास्त्र की रूपरेखा, पृ० ३९ २. उद्धृत-नीतिशास्त्र की रूपरेखा, पृ० ३८ ३. एथिकल स्टडीज, पृ० ३१४, ३१९ ४. वही, पृ० ३१४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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