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________________ १५ नैतिकता, धर्म और ईश्वर धर्म और नैतिकता का सम्बन्ध - भारतीय चिन्तन में धर्म और नैतिकता के प्रत्यय साथ-साथ रहे हैं। किसी भी विभाजक रेखा के आधार पर वे अलग नहीं किये जा सकते । जो नैतिक शुभ है, वही धर्म है, और जो धर्म है वही नैतिक शुभ है । भारतीय चिन्तन में 'धर्म' शब्द नैतिक सद्गुण और कर्तव्य के अर्थ में बहुधा प्रयुक्त हुआ है । जब हम यह कहते हैं कि यह धर्म है तो हमारा तात्पर्य नैतिक कर्तव्य की धारणा से होता है । धर्म शब्द का धर्म के अर्थ में और नैतिक कर्तव्य के अर्थ में होने वाला प्रयोग यह बताता है कि हमारी विचार- परम्परा में धर्म और नीति अलग-अलग न होकर, एक रहे । भारतीय परम्परा का यह दृढ़ विश्वास है कि कोई भी धार्मिक होकर अनैतिक नहीं हो सकता और न कोई अनैतिक आचरण करने वाला धार्मिक हो सकता है । जैन दर्शन के अनुसार धार्मिक होने के पूर्व नैतिक होना आवश्यक है । सम्यक्त्व की उपलब्धि नैतिक जीवन या वासनाओं के नियमन के द्वारा ही सम्भव है और जब कोई सच्चे अर्थों में धार्मिक (सम्यग्दृष्टि ) बन जाता है तो वह अनैतिक भी नहीं रहता । जैन परम्परा के समान बौद्ध और गीता की परम्परा में भी धर्म और नैतिकता के प्रत्यय साथ-साथ रहे हैं । लेकिन पाश्चात्य परम्परा में धर्म और नैतिकता को अलग-अलग रूप में देखा गया है । पाश्चात्य विचारकों की दृष्टि में धर्म और नैतिकता के आधार भिन्नभिन्न है । धर्म का सम्बन्ध भावना से है जबकि नैतिकता का सम्बन्ध कर्तव्य से । धर्म का आधार विश्वास या श्रद्धा है जबकि नैतिकता का आधार बौद्धिकता या विवेक है । धर्म का सम्बन्ध हमारे भावनात्मक पक्ष से है जबकि नैतिकता का सम्बन्ध संकल्पात्मक पक्ष से है । सेम्युअल अलेग्जेण्डर का कथन है कि " वास्तव में धार्मिक होना इससे अधिक कर्तव्य नहीं, यदि भूखा होना कोई कर्तव्य है ।" जिस प्रकार भूखा होने में कर्तव्यभाव नहीं है, वरन् मात्र एक सांवेगिक अवस्था है । उसी प्रकार धर्म भी कर्तव्यभाव नहीं है, वरन् सांवेगिक अवस्था है । इस प्रकार उनकी दृष्टि में धर्म और नैतिकता अलग-अलग हैं | विलियम जेम्स भी धर्म को नैतिकता से अलग मानते हैं और कहते हैं कि जब हम धर्म को उसके सही अर्थ में लेते हैं तो उसमें नैतिकता के लिए कोई स्थान नहीं होता। उनका कथन है कि "यदि हमें धर्म का कोई निश्चित अर्थ लेना है, तो हमें १. उद्धृत - नीतिशास्त्र की रूपरेखा, Jain Education International पृ० ३८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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