________________
४२२
.
जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
नहीं है, व्यावहारिक दृष्टि से उसे समझने का प्रयास भर है । वस्तुतः वह अनिर्वचनीय है। आचार्य नेमिचन्द्र स्पष्ट रूप से कहते हैं "सिद्धों के इन गुणों का विधान मात्र सिद्धान्त के स्वरूप के सम्बन्ध में जो ऐकान्तिक मान्यताएं हैं, उनके निषेध के लिए है।" मुक्तात्मा में केवल-ज्ञान और केवल-दर्शन के रूप में ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग को स्वीकार करके मुक्तात्मा को जड़ मानने वाली वैभाषिक बौद्धों और न्याय-वैशेषिकों की धारणा का प्रतिषेध किया गया है । मुक्तात्मा के अस्तित्व या अक्षयता को स्वीकार कर मोक्ष को अभावात्मक रूप में मानने वाले जड़वादी तथा सौत्रान्तिक बौद्धों की मान्यता का निरसन किया गया है । इस प्रकार हम देखते हैं कि मोक्षदशा का यह समग्र चित्रण अपना निषेधात्मक मूल्य ही रखता है । यह विधान भी निषेध के लिए है।
(ब) अभावात्मक दृष्टिकोण-जैनागमों में मोक्षावस्था का चित्रण निषेधात्मक रूप से भी हुआ है । आचारांग में मुक्तात्मा का निषेधात्मक चित्रण इस प्रकार हुआ हैमोक्षावस्था में समस्त कर्मों का क्षय हो जाने से मुक्तात्मा में समस्त कर्मजन्य उपाधियों का भी अभाव होता है; अतः मुक्तात्मा न दीर्घ है, न ह्रस्व है, न वृत्ताकार है, न त्रिकोण है, न चतुष्कोण है, न परिमण्डल संस्थानवाला है। वह कृष्ण, नील, पीत, रक्त और श्वेत वर्ण वाला भी नहीं है। वह सुगन्ध और दुर्गन्ध वाला भी नहीं है । न वह तीक्ष्ण, कटुक, खट्ठा, मीठा एवं अम्ल रस वाला है। उसमें गुरु, लघु, कोमल, कठोर, स्निग्ध, रुक्ष, शीत एवं उष्ण आदि स्पर्श-गुणों का भी अभाव है। वह न स्त्री है, न पुरुष है, न नपंसक है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं, "मोक्षदशा में न सुख है, न दुःख है, न पीड़ा है, न बाधा है, न जन्म है, न मरण है, न वहाँ इन्द्रियाँ हैं, न उपसर्ग है, न मोह है, न व्यामोह है, न निद्रा है, न वहां चिन्ता है, न आर्त और रोद्र विचार ही हैं। वहाँ तो धर्म (शुभ) और शुक्ल (शुद्ध) विचारों का भी अभाव है।" मोक्षावस्था तो सर्व संकल्पों का अभाव है। वह बुद्धि और विचार का विषय नहीं है, वह पक्षातिक्रांत है । इस प्रकार मुक्तावस्था का निषेधात्मक विवेचन उसकी अनिर्वचनीयता को बताने के लिए है ।
(स) अनिर्वचनीय दृष्टिकोण-मोक्षतत्त्व का निषेधात्मक निर्वचन अनिवार्य रूप से हमें अनिर्वचनीयता की ओर ही ले जाता है। पारमार्थिक दृष्टि से विचार करते हुए जैनदार्शनिकों ने उसे अनिर्वचनीय ही माना है ।
आचारांगसूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है, "समस्त स्वर वहाँ से लौट आते हैं। अर्थात् ध्वन्यात्मक किसी भी शब्द की प्रवृत्ति का वह विषय नहीं है। वाणी उसका
२. आचारांग, ११५।६।१७१
१. गोम्मटसार-जीवकाण्ड, ६९ ३. नियमसार, १७८-१७९
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org