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बन्धन से मुक्ति की ओर (संबर और निर्जरा)
" हे अर्जुन ! यत्न करते हुए बुद्धिमान् पुरुष के मन को भी यह प्रमथन -स्वभाव वाली इन्द्रियाँ बलात्कार से हर लेती हैं । जैसे जल में वायु नाव को हर लेता है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों के बीच में जिस इन्द्रिय के साथ मन रहता है, वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि का हरण कर लेती है । हे महाबाहो ! जिस पुरुष की इन्द्रियाँ सब प्रकार के इन्द्रियों-विषयों से वश में होती हैं उसकी बुद्धि स्थिर होती है । इसलिए मनुष्य को चाहिए कि उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके समाहितचित्त हुआ मेरे परायण स्थित होये ।" " इस प्रकार गीता का जोर भी संयम पर है ।
५. संयम और नैतिकता
वस्तुतः जैन और गीता के आचार-दर्शन संयम के प्रत्यय को मुक्ति के लिए आवश्यक मानते हैं । जैन- विचारणा में धर्म (नैतिकता) के तीन प्रमुख अंग माने गये हैं—१. अहिंसा २. संयम और ३. तप । दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है, "अहिंसा, संयम और तप रूप धर्म सर्वोत्कृष्ट मंगल है" । २ संयम का अर्थ है मर्यादित या नियमपूर्वक जीवन और नैतिकता का भी यही अर्थ है । नैतिकता को मर्यादित या नियमपूर्वक जीवन से भिन्न नहीं देखा जा सकता ।
किन्हीं विचारकों की यह मान्यता हो सकती है कि व्यक्ति को जीवन-यात्रा के संचालन में किन्हीं मर्यादाओं एवं आचार नियमों में बाँधना उचित नहीं है । तर्क दिया जा सकता है कि मर्यादाओं के द्वारा व्यक्ति के जीवन की स्वाभाविकता नष्ट हो जाती है और मर्यादाएँ या नियम कभी भी परमसाध्य नहीं हो सकते । वे तो स्वयं एक प्रकार का बंधन हैं । लक्ष्य की प्राप्ति में मर्यादाएँ व्यर्थ हैं ।
लेकिन यह मान्यता युक्तिसंगत नहीं है । प्रकृति का सूक्ष्म निरीक्षण करने पर ज्ञात होता है कि प्रकृति (सम्पूर्ण जगत ) नियमों से आबद्ध है । पाश्चात्य दार्शनिक स्पिनोजा का कथन है कि संसार में जो कुछ हो रहा है, नियमबद्ध हो रहा है । इससे भिन्न कुछ हो ही नहीं सकता, जो कुछ होता है प्राकृतिक नियम के अधीन होता है । ३ प्रकृति स्वयं उन तथ्यों को व्यक्त कर रही है जो इस धारणा को पुष्ट करते हैं कि विकारमुक्त अवस्था की प्राप्ति एवं आत्म - विकास के लिए भी मर्यादाएँ आवश्यक हैं। चेतन और अचेतन दोनों प्रकार की सृष्टि की अपनीअपनी मर्यादाएँ हैं । सम्पूर्ण जगत् नियमों से शासित है । जिस समय जगत् में नियमों का अस्तित्व समाप्त होगा, उसी समय जगत् का अस्तित्व भी समाप्त हो जायेगा ।
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२. दशवैकालिक, १1१.
१. गीता, २०६०, २६७, २६८, २।६१. ३. पश्चिमी दर्शन ( दीवानचन्द), पृ० १२१.
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