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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
करे और उसमें सलंग्न हो जाय, तो उसे समझना चाहिए कि मैं कुशल धर्मों से गिर रहा हूँ। इसे परिहान कहा है।
भिक्षुओ ! ऐसे ही असंवर होता है । भिक्षुओ ! संवर कैसे होता है ?
भिक्षुओ ! चक्षुविज्ञेय रूप, श्रोत्रविज्ञेय शब्द, घ्राणविज्ञेय गन्ध, जिह्वा विशेष रस, कायाविज्ञेय स्पर्श, मनोविज्ञेय धर्म, अभीष्ट, सुन्दर, लुभावने, प्यारे, कामयुक्त, राग में डालने वाले होते हैं। यदि कोई भिक्षु उनका अभिनन्दन न करे, उनकी बड़ाई न करे, और उनमें संलग्न न हो, तो उसे समझना चाहिए कि मैं कुशल धर्मों से नहीं गिर रहा हूँ । इसे अपरिहान कहा है। भिक्षुओ ! ऐसे ही संवर होता है।' . धम्मपद में बुद्ध कहते हैं, "भिक्षुओ! आँख का संवर उत्तम है, श्रोत्र का संवर उत्तम है, भिक्षुओ ! नासिका का संवर उत्तम है और उत्तम है जिह्वा का संवर । मन, वाणी और शरीर सभी का संवर उत्तम है। जो भिक्षु पूर्णतया संवृत है, वह समग्र दुःखों से शीघ्र ही छूट जाता है ।"२
इस प्रकार बौद्ध-दर्शन में संवर का तत्त्व स्वीकृत रहा है। इन्द्रियनिग्रह और मन, वाणी एवं शरीर के संयम को दोनों परम्पराओं ने स्वीकार किया है। दोनों ही संवर (संयम) को नवीन कर्म-संतति से बचने का उपाय तथा निर्वाण-मार्ग का सहायक तत्त्व स्वीकार करते हैं। दशवकालिकसूत्र के समान बुद्ध भी सच्चे. साधक को सुसमाहित (सुसंवृत) रूप में देखना चाहते हैं। वे कहते हैं कि "भिक्षु वस्तुतः वह कहलाता है, जो हाथ और पैर का संयम करता है, जो वाणी का संयम करता है, जो उत्तम रूप से संयत है, जो अध्यात्म में स्थित है, जो समाधियुक्त है और सन्तुष्ट है ।''३
४. गीता का दृष्टिकोण ___ गीता में संवर शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है, फिर भी मन, वाणी, शरीर और इन्द्रियों के संयम का विचार तो उसमें है ही। सूत्रकृतांग के समान कछुए का उदाहरण देते हुए गीताकार भी कहता है कि “कछुआ अपने अंगों को जैसे समेट लेता है, वैसे ही साधक जब सब ओर से अपनी इन्द्रियों को इन्द्रियों के विषयों से समेट लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर होती है।'४
१. संयुत्त निकाय, ३४।२।५।५. ३. वही, ३६२. तुलनीय दशवकालिक १०।१५
२. धम्मपद, ३६०-३६१. ४. गीता, २०५८.
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