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कम-बन्ध के कारण, स्वरूप एवं प्रक्रिया
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सम्बन्ध माना गया है । इस प्रकार अविद्या या दर्शन-मोह अहेतुक नहीं है, उनका हेतु तृष्णा या चारित्र मोह है ।
२. संस्कार - प्रतीत्यसमुत्पाद की दूसरी कड़ी संस्कार है । कुशल-अकुशल कायिक, वाचिक और मानसिक चेतनाएँ, जो जन्म-मरण परम्परा का कारण बनती हैं, संस्कार कही जाती हैं । संस्कार एक प्रकार से मानसिक वासना है जो अविद्याजन्य है | संस्कार तीन प्रकार के हैं- १. पुण्याभिसंस्कार, २ . अपुण्यात्रिसंस्कार, ३. अन्योन्याभिसंस्कार । ये संस्कार जैन परम्परा के चारित्र मोह से तुलनीय हैं । पुण्याभिसंस्कार पुण्य-बन्ध से, अपुण्याभिसंस्कार पाप-बन्ध से और अन्योन्याभिसंस्कार पुण्यानुबन्धी पाप या पापानुबन्धी पुण्य से तुलनीय है ।
३. विज्ञान - प्रतीत्यसमुत्पाद की तीसरी कड़ी विज्ञान (चेतना) है, जो संस्कारजन्य है | विज्ञान का तात्पर्य उन चित्त धाराओं से है जो पूर्वजन्म में किये हुए कुशल - अकुशल कर्मों के विपाकस्वरूप इस जन्म में प्रकट होती हैं और जिनके कारण मनुष्य को ऐन्द्रिक संवेदन एवं अनुभूति होती है अर्थात् विज्ञान इन्द्रियों की ज्ञान-सम्बन्धी चेतन - क्षमता का आधार एवं निर्धारक है । इस प्रकार विज्ञान जैन-परम्परा के ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म से तुलनीय है । पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ तथा मन ये छह विज्ञान के प्रकार हैं ।
४. नाम-रूप -- नाम-रूप का प्रतीत्यसमुत्पाद में चौथा स्थान है । नाम-रूप का हेतु विज्ञान (चेतना) है । बौद्ध दर्शन में समस्त जगत्-रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान, इन पंचस्कन्धों से निर्मित है । प्रथम रूपस्कन्ध को रूप और शेष चारों स्कन्धों को नाम कहा जाता है । रूप भौतिक और नाम चेतन है । मिलिन्दप्रश्न में नागसेन लिखते हैं कि जितनी स्थूल चीजें हैं वे सभी रूप हैं और जितनी सूक्ष्म मानसिक अवस्थाएँ हैं वे नाम हैं । पृथ्वी, अग्नि, पानी और वायु ये चारों महाभूत और इनसे प्रत्युत्पन्न सभी वस्तुएँ एवं शरीरादि रूप कही जाती हैं, जबकि वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान ये चारों नाम कहे जाते हैं । नामजैन- विचारणा के आयुष्य कर्म, गतिनामकर्म और अवस्था से तुलनीय हैं ।
शरीर नामकर्म की संयुक्त
५. षडायतन - षडायतन से तात्पर्य चक्षु, घ्राण, श्रवण, रसना और स्पर्श इन पाँच इन्द्रियों एवं छठे मन से है । षडायतन का कारण नाम-रूप है । तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर व्यक्ति के सन्दर्भ में नाम रूप और षडायतन जैन दर्शन के नाम-कर्म के समान है । क्योंकि जैन दर्शन में नामकर्म और बौद्धदर्शन में नाम रूप तथा षडायतन वैयक्तिकता के निर्धारक हैं और इस अर्थ में दोनों ही समान हैं ।
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