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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
न कर ले, फिर भी वह न तो उसकी प्रकाश क्षमता को नष्ट कर सकता है और न उसके प्रकाश के प्रकटन को पूर्णतया रोक सकता है, उसी प्रकार चाहे कर्म ज्ञानादि आत्मगुणों को कितना ही आवृत क्यों न कर ले, फिर भी उनका एक अंश हमेशा ही अनावृत रहता है ।
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६. प्रतीत्यसमुत्पाद और अष्टकर्म, एक तुलनात्मक विवेचन
जैन दर्शन के अष्टकर्म के वर्गीकरण पर कोई तुलनात्मक विवेचन सम्भव नहीं है, क्योंकि बौद्ध दर्शन और गीता में इस रूप में कोई विवेचना उपलब्ध नहीं है । लेकिन जिस प्रकार जैन दर्शन का कर्म-वर्गीकरण बन्धन एवं जन्म-मरण की परम्परा के कारकों की व्याख्या करता है उसी प्रकार बौद्ध परम्परा में प्रतीत्यसमुत्पाद भी जन्म-मरण की परम्परा के कारकों की व्याख्या करता है । अतः उस पर संक्षेप में विचार कर लेना उपयुक्त होगा ।
प्रतीत्यसमुत्पाद का अर्थ है ऐसा होने पर ऐसा होता है और ऐसा न होने पर ऐसा नहीं होता है । वह यह मानता है कि प्रत्येक उत्पाद का कोई प्रत्यय हेतु या कारण अवश्य होता है। यदि प्रत्येक उत्पाद सहेतुक है तो फिर हमारे बन्धन या दुःख का भी कोई हेतु अवश्य होगा । प्रतीत्यसमुत्पाद हमारे बन्धन या दुःख की निम्न १२ अंगों में कार्य कारणात्मक व्याख्या प्रस्तुत करता है ।
१. अविद्या - प्रतीत्यसमुत्पाद की प्रथम कड़ी अविद्या है । बौद्ध दर्शन में अविद्या का अर्थ है दुःख, दुःख समुदय, दुःख निरोध और दुःख निरोधमार्ग रूपी चार आर्यसत्य सम्बन्धी अज्ञान । अविद्या का हेतु आस्रव है, आस्रवों के समुदय से अविद्या का समुदय होता है और अविद्या के कारण ही जन्म-मरण परम्परा का संसरण होता है । इस प्रकार बौद्ध दर्शन में अविद्या संसार में आवागमन ( बन्धन) का मूलाधार है । तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाये तो अविद्या जैन - परम्परा के दर्शनमोह के समान है । दोनों के अनुसार यह एक आध्यात्मिक अन्धता या सम्यक्दृष्टिकोण का अभाव है । दोनों ही इस बात में सहमत हैं कि अविद्या या दर्शनमोह दुःख, बंन्धन एवं अनैतिक आचरण का प्रमुख कारण है । दोनों ही परम्पराएँ अविद्या या दर्शन मोह को अनादि मानते हुए भी अहेतुक या अकारण नहीं मानती हैं, जैसा कि सांख्य दर्शन में माना गया है । बौद्ध परम्परा में अविद्या और तृष्णा में तथा जैन - परम्परा में दर्शन - मोह और चारित्र मोह में पारस्परिक कार्य-कारण
१. नन्दिसूत्र, ४२.
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२. (अ) दीघनिकाय, २२;
(ब) संयुत्तनिकाय, १२।१।२;
(स) बौद्धदर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन, पृ० ३७३-४१०.
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