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कर्म का अशुभत्व, शुभत्व एवं शुद्धत्व
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( ई ) शुभ का अभ्यास करने से तथा आश्रय बल से ( बुद्धादि के शरणागत हो जाने से ) भी पापकर्म उपचित नहीं होता ।
४. वे कर्म जो कृत भी नहीं हैं और उपचित भी नहीं हैं-स्वप्नावस्था में किये गये कर्म इसी प्रकार के होते हैं ।
इस प्रकार प्रथम दो वर्गों के कर्म प्राणो को बन्धन में डालते हैं और अन्तिम दो प्रकार के कर्म प्राणी को बन्धन में नहीं डालते ।
बौद्ध आचारदर्शन में भी राग द्वेष और मोह से युक्त होने पर ही कर्म को बन्धनकारक माना जाता है और राग-द्वेष और मोह से रहित कर्म को बन्धनकारक नहीं माना जाता । बौद्ध दर्शन राग-द्वेष और मोह रहित अर्हत् के क्रिया-व्यापार को बन्धनकारक नहीं मानता है, ऐसे कर्मों को अकृष्ण-अशुक्ल या अव्यक्त कर्म भी कहा गया है । $१०. गीता में कर्म-अकर्म का स्वरूप
गीता भी इस सम्बन्ध में गहराई से विचार करती है कि कौन-सा कर्म बन्धन. कारक और कौन-सा कर्म बन्धनकारक नहीं है। गीता के अनुसार कर्म तीन प्रकार के हैं-(१) कर्म, (२) विकर्म, ( ३ ) अकर्म। गीता के अनुसार कर्म और विकर्म बन्धनकारक हैं और अकर्म बन्धनकारक नहीं है।
१. कर्म-फल की इच्छा से जो शुभ कर्म किये जाते हैं, उसका नाम कर्म है।
२. विकर्म-समस्त अशभ कर्म जो वासनाओं की पूर्ति के लिए किये जाते हैं, उन्हें विकर्म कहा गया है । साथ ही फल की इच्छा एवं अशुभ भावना से जो दान, तप, सेवा आदि शुभ कर्म किये जाते हैं, वे भी विकर्म कहलाते हैं । गीता में कहा गया, है, जो तप मूढ़तापूर्वक हठ से मन, वाणी, शरीर को पीड़ासहित अथवा दूसरे का अनिष्ट करने के विचार से किया जाता है वह तामस कहा जाता है। साधारणतया मन, वाणी एवं शरीर से होनेवाले हिंसा, असत्य', चोरी आदि निषिद्ध कर्म मात्र ही विकर्म समझे जाते है, परन्तु बाह्य रूप से विकर्म प्रतीत होनेवाले कर्म भी कभी कर्ता की भावनानुसार कर्म या अकर्म के रूप में बदल जाते हैं। आसक्ति और अहंकार से रहित होकर शुद्ध भाव एवं मात्र कर्तव्य-बुद्धि से किये जानेवाले कर्म ( जो बाह्यतः विकर्म प्रतीत होते हैं) भी फलोत्पादक न होने से अकर्म ही हैं ।
३. अकर्म-फलसक्तिरहित हो अपना कर्तव्य समझकर जो भी कर्म किया जाता है उस कर्म का नाम अकर्म है । गीता के अनुसार, परमात्मा में अभिन्न भाव से स्थित होकर कर्तापन के अभिमान से रहित पुरुष द्वारा जो कर्म किया जाता है, वह मुक्ति के अतिरिक्त अन्य फल नहीं देनेवाला होने से अकर्म ही है ।
१. गीता, १७१६. २. वही, १८२७. ३. वही, ३३१०.
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