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________________ कम-सिद्धान्त दूसरी ओर यदि इसे अनादि माना जाये तो जो अनादि है वह अनन्त भी होगा और इस अवस्था में मुक्ति की कोई सम्भावना नहीं रह जायेगी। जैन दृष्टिकोण जैन दार्शनिकों ने समस्या के समाधान के लिए एक सापेक्ष उत्तर दिया है । उनका कहना कि कर्मपरम्परा कर्मविशेष की अपेक्षा से सादि और सान्त है और प्रवाह को दृष्टि से अनादि-अनन्त है। कर्मपरम्परा का प्रवाह भी व्यक्ति विशेष की दृष्टि से अनादि तो है, लेकिन अनन्त नहीं है। उसे अनन्त नहीं मानने का कारण यह है कि कर्मविशेष के रूप में तो सादि है और यदि व्यक्ति नवीन कर्मों का आगमन रोक सके तो वह परम्परा अनन्त नहीं रह सकती। जैन दार्शनिकों के अनुसार राग-द्वेषरूपी कर्मबीज के भुन जाने पर कर्म-प्रवाह की परम्परा समाप्त हो जाती है । कर्म-परम्परा के सम्बन्ध में यही एक ऐसा दृष्टिकोण है, जिसके आधार पर बन्धन का अनादित्व, मुक्ति से अनावृत्ति और मुक्ति की सम्भावना को समुचित व्याख्या हो सकती है। बौद्ध दृष्टिकोण बौद्ध आचारदर्शन भी बन्धन के अनादित्व और मुक्ति से अनावृत्ति को धारणा को स्वीकार करता है। अतः बौद्ध दृष्टि से कर्म-परम्परा को व्यक्तविशेष की दृष्टि से अनादि और सान्त मानना समुचित प्रतीत होता है। बौद्ध दार्शनिक कारणरूप कर्मपरम्परा से आगे किसी कर्ता को नहीं देखते हैं। उनके अनुसार, सच्चा ज्ञानी कारण से आगे कर्ता को नहीं देखता न विपाक की प्रवृत्ति से आगे विपाक भोगनेवाले को । किन्तु कारण के होने पर कर्ता है और विपाक की प्रवृत्ति से भोगनेवाला है, ऐसा मानता है । बौद्ध दार्शनिक अपनी अनात्मवादी धारणा के आधार पर कारणरूप कर्म. परम्परा पर रुक जाना पसन्द करते हैं, क्योंकि इस आधार पर अनात्म को अवधारणा सरल होती है। लेकिन कर्म के कारण को मानना और उसके कारक को नहीं मानना एक वदतोव्याघात है। यहाँ हम इसकी गहराई में नहीं जाना चाहते । वास्तविकता यह है कि कर्ता, कर्म और कर्म-विपाक तीनों में से किसी की भी पूर्वकोटि नहीं मानी जा सकती। बौद्ध दार्शनिक भी कर्म और विपाक के सम्बन्ध में इसे स्वीकार करते हैं। कहा है कि कर्म और विपाक के प्रवर्तित होने पर वक्ष बीज के समान किसी का पूर्व छोर नहीं जान पड़ता है। इस प्रकार बौद्ध दार्शनिकों के अनुसार भी प्रवाह अनादि तो है, लेकिन वैयक्तिक दृष्टि से वह अनन्त नहीं रहता। जैसे किसी बीज के भुन जाने पर उस बीज की दृष्टि से बीज-वृक्ष की परम्परा समाप्त हो जाती है, वैसे ही व्यक्ति के राग, द्वष और मोह का प्रहाण हो जाने पर उस व्यक्ति को कर्म-विपाक परम्परा का अन्त हो जाता है । १२. कर्मफल सविभाग कर्म-सिद्धान्त के सन्दर्भ में यह विचारणीय प्रश्न है कि क्या एक व्यक्ति अपने १. विसुद्धिमग्ग, भाग २, पृ० २०५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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