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________________ ३१४ मूर्त का अमूर्त से सम्बन्ध यह प्रश्न भी उठ सकता है कि मूर्त कर्म अमूर्त आत्मा से कैसे सम्बन्धित होते हैं ? जैन विचारकों का समाधान यह है कि जैसे मूर्त घट अमूर्त आकाश के साथ सम्बन्धित होता है वैसे ही मूर्त कर्म अमूर्त आत्मा के साथ सम्बन्धित होते हैं । जैन विचारकों ने आत्मा और कर्म के सम्बन्ध को नीर-क्षीरवत् अथवा अग्नि-लौहपिंडवत् माना है । यह प्रश्न भी उठ सकता है कि यदि दो स्वतन्त्र सत्ताओं - जड़ कर्मपरमाणु और चेतन में पारस्परिक प्रभाव को स्वीकार किया जायेगा तो फिर मुक्तावस्था में भी जड़कर्मपरमाणु आत्मा को प्रभावित किये बिना नहीं रहेंगे और मुक्ति का कोई अर्थ नहीं होगा । यदि वे परस्पर एक-दूसरे को प्रभावित करने में सक्षम नहीं हैं तो फिर बन्धन ही कैसे सिद्ध होगा ? आचार्य कुन्दकुन्द ने इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा कि जैसे स्वर्ण कीचड़ में रहने पर भी जंग नहीं खाता जबकि लोहा जंग खा जाता है, इसी प्रकार शुद्धात्मा कर्मपरमाणुओं के मध्य रहते हुए भी उनके निमित्त से विका नहीं बनता जबकि अशुद्ध आत्मा विकारी बन जाता है। जड़ कर्म - परमाणु उसी आत्मा को विकारी बना सकते हैं जो पूर्व में राग-द्वेष आदि से अशुद्ध है ।" वस्तुतः आत्मा जब तक भौतिक शरीर से युक्त होता है, तभी तक कर्म-परमाणु उसे प्रभावित कर सकते हैं । कर्म-शरीर के रूप में रहे हुए कर्म-परमाणु ही बाह्य जगत् के कर्म - परमाणुओं का आकर्षण कर सकते हैं । चूंकि मुक्तावस्था में आत्मा अशरीरी होता है, अतः उस अवस्था में कर्मपरमाणुओं की उपस्थिति में भी उसे बन्धन में आने की कोई सम्भावना नहीं रहती । $ ११. कर्म और विपाक की परम्परा जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन राग-द्वेष आदि की शुभाशुभ वृत्तियाँ ही भावकर्म के रूप में आत्मा की अवस्था विशेष हैं । भावकर्म की उपस्थिति में ही द्रव्य-कर्म आत्मा के द्वारा ग्रहण किये जाते हैं । भावकर्म के निमित्त से द्रव्यकर्म का आस्रव होता रहता है और यही द्रव्यकर्म समय विशेष में भावकर्म का कारण बन जाता है । इस प्रकार कर्म-प्रवाह चलता रहता है । कर्म-प्रवाह ही संसार है । कर्म और विपाक की परम्परा से यह संसारचक्र प्रवर्तित होता रहता है । भगवान् बुद्ध कहते हैं कि कर्म से विपाक प्रवर्तित होते हैं और विपाक से कर्म उत्पन्न होता है । कर्म से पुनर्जन्म होता है और इस प्रकार यह संसार प्रवर्तित होता है । अतः यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है कि कर्म और आत्मा का सम्बन्ध कब से है अथवा कर्म और विपाक की परम्परा का प्रारम्भ कब हुआ ? यदि हम इसे सादि मानते हैं तो यह मानना पड़ेगा कि किसी काल-विशेष में आत्मा बद्ध हुआ, उसके पहले मुक्त था; फिर उसे बन्धन में आने का क्या कारण ? यदि मुक्तात्मा को बन्धन में आने की सम्भावना मानी जाये तो मुक्ति का मूल्य अधिक नहीं रह जाता १. समयसार, २१८-१९. २. माज्झिमनिकाय; ३1१1३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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