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कर्म-सिद्धान्त
३०५.
मानस - कर्म है और चेतना से उत्पन्न होने के कारण शेष दोनों वाचिक और कायिक कर्म चेतयित्वा कर्म कहे गये हैं ।" इस प्रकार हम देखते हैं कि यद्यपि कर्म शब्द क्रिया के अर्थ में प्रयुक्त होता है, लेकिन कर्म - सिद्धान्त में कर्म शब्द का अर्थ क्रिया से अधिक विस्तृत है । वहाँ पर कर्म शब्द में शारीरिक, मानसिक और वाचिक क्रिया, उस क्रिया का विशुद्ध चेतना पर पड़नेवाला प्रभाव एवं इस प्रभाव के फलस्वरूप भावी क्रियाओं का निर्धारण और उन भावी क्रियाओं के कारण उत्पन्न होनेवाली अनुभूति सभी समाविष्ट हो जाती है । साधारण रूप में कर्म शब्द से क्रिया, क्रिया का उद्देश्य और उसका फलविपाक तीनों ही अर्थ लिये जाते हैं । कर्म में क्रिया का उद्देश्य, क्रिया और उसके फलविपाक तक के सारे तथ्य सन्निहित हैं । आचार्य नरेन्द्रदेव लिखते हैं, केवल चेतना ( आशय ) और कर्म हो सकल कर्म नहीं हैं । ( उस में ) कर्म के परिणाम का भी विचार करना होगा । २
जैन दर्शन में कर्म शब्द का अर्थ
सामान्यतया क्रिया को कर्म कहा जाता है; क्रियाएँ तीन प्रकार की हैं - १. शारीरिक, २. मानसिक और ३ वाचिक | शास्त्रीय भाषा में इन्हें 'योग' कहा गया है । लेकिन जैन परम्परा में कर्म का यह क्रियापरक अर्थ कर्म शब्द की एक आंशिक व्याख्या ही प्रस्तुत करता है । उसमें क्रिया के हेतु पर भी विचार किया गया है । आचार्य देवेन्द्रसूरि कर्म को परिभाषा में लिखते हैं, जीव की क्रिया का जो हेतु है, वह कर्म है । 3 पं० सुखलालजी कहते हैं कि मिथ्यात्व कषाय आदि कारणों से जीव के द्वारा जो किया जाता है वही कर्म कहलाता है । * इस प्रकार वे कर्म हेतु और क्रिया दोनों को ही कर्म के अन्तर्गत ले जाते हैं ! जैन परम्परा में कर्म के दो पक्ष हैं- ( १ ) राग-द्वेष, कषाय आदि मनोभाव और (२) कर्मपुद्गल । कर्मपुद्गल क्रिया का हेतु है और रागद्वेषादि क्रिया है । कर्मपुद्गल से तात्पर्य उन जड़ परमाणुओं ( शरीररासायनिक तत्त्वों ) से है जो प्राणी को किसी क्रिया के कारण आत्मा की ओर आकर्षित होकर, उससे अपना सम्बन्ध स्थापित कर कर्मशरीर की रचना करते हैं और समयविशेष के पकने पर अपने फल ( विपाक ) के रूप में विशेष प्रकार को अनुभूतियाँ उत्पन्न कर अलग हो जाते हैं । इन्हें द्रव्य-कर्म कहते हैं । संक्षेप में जैन विचार में कर्म का तात्पर्य आत्मशक्ति को प्रभावित और कुंठित करनेवाले तत्त्व से है ।
सभी आस्तिक दर्शनों ने एक ऐसी सत्ता को स्वीकार किया है जो आत्मा या चेतना की शुद्धता को प्रभावित करती है । जैन दर्शन उसे 'कर्म' कहता है । वही सत्ता वेदान्त में माया या अविद्या, सांख्य में प्रकृति, न्यायदर्शन में अदृष्ट और मीमांसा में
१. बौद्ध धर्म दर्शन, पृ० २४१.
२. वही, पृ० २५५.
३. कर्मविपाक ( कर्मग्रन्थ पहला ), १.
४. दर्शन और चिन्तन, पृ० २२५.
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