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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन ६७. 'कर्म' शब्द का अर्थ
'कर्म' शब्द के अनेक अर्थ हैं । साधारणतः 'कर्म' शब्द का अर्थ 'क्रिया' है, प्रत्येक प्रकार की हलचल, चाहे वह मानसिक हो अथवा शारीरिक, क्रिया कही जाती है । गीता में कर्म शब्द का अर्थ
मीमांसादर्शन में कर्म का तात्पर्य यज्ञ-याग आदि क्रियाओं से है जबकि गीता वर्णाश्रम के अनुसार किये जानेवाले स्मार्त-कार्यों को भी कर्म कहती है । तिलक के अनुसार गीता में कर्म शब्द केवल यज्ञ-याग एवं स्मार्त कर्म के ही संकुचित अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ है, वरन् सभी प्रकार के क्रिया-व्यापारों के व्यापक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। मनुष्य जो कुछ भी करता है, जो भी कुछ नहीं करने का मानसिक संकल्प या आग्रह रखता है वे सभी कायिक एवं मानसिक प्रवृत्तियाँ भगवद्गीता के अनुसार कर्म ही हैं।२ बौद्ध दर्शन में कर्म का अर्थ
बौद्ध विचारकों ने भी कर्म शब्द का प्रयोग क्रिया के अर्थ में किया है। वहाँ भी शारीरिक, वाचिक और मानसिक क्रियाओं को कम कहा गया है, जो अपनी नैतिक शुभाशुभ प्रकृति के अनुसार कुशल कर्म अथवा अकुशल कर्म कहे जाते हैं । बौद्ध दर्शन में यद्यपि शारीरिक, वाचिक और मानसिक इन तीनों प्रकार की क्रियाओं के अर्थ में कर्म शब्द का प्रयोग हुआ है, फिर भी वहां केवल चेतना को प्रमुखता दी गयी है और चेतना को ही कर्म कहा गया है। बुद्ध ने कहा है, 'चेतना ही भिक्षुओ कर्म है ऐसा मैं कहता हूँ, चेतना के द्वारा ही कर्म को करता है काया से, वाणी से या मन से ।' यहाँ पर चेतना को कर्म कहने का आशय केवल यही है कि चेतना के होने पर ही ये समस्त क्रियाएँ सम्भव हैं। बौद्ध दर्शन में चेतना को ही कर्म कहा गया है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है, कि दूसरे कर्मों का निरसन किया गया है। उसमें कर्म के सभी पक्षों का सापेक्ष महत्त्व स्वीकार किया गया है । आश्रय, स्वभाव और समुत्थान की दृष्टि से तीनों प्रकार के कर्मों का अपनाअपना विशिष्ट स्थान है। आश्रय की दृष्टि से कायकर्म ही प्रधान है क्योंकि मनकर्म और वाचाकर्म भी काया पर ही आश्रित हैं। स्वभाव की दृष्टि से वाक्कर्म ही प्रधान है, क्योंकि काय और मन स्वभावतः कर्म नहीं हैं, कर्म उनका स्वस्वभाव नहीं है। यदि समुत्थान ( आरम्भ ) की दृष्टि से विचार करें तो मनकर्म ही प्रधान है, क्योकि सभी कर्मों का आरम्भ मन से है । बौद्ध दर्शन में समुत्थान कारण को प्रमुखता देकर ही यह कहा गया है कि चेतना ही कर्म है। साथ ही इसी आधार पर कर्मों का एक द्विविध वर्गीकरण किया गया है-१. चेतना कर्म और २. चेतयित्वा कर्म । चेतना
१. गीतारहस्य, पृ० ५५-५६. २. गीता ५८.११. ३. अंगुत्तरनिकाय-उद्धृत बौद्ध दर्शन और अन्य भारतीय दर्शन, पृ० ४६३.
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