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कर्म - सिद्धान्त
अंगुत्तरनिकाय में भगवान् बुद्ध ने विभिन्न कारणतावादी और अकारणतावादी दृष्टिकोणों की समीक्षा की है ।" जगत् के व्यवस्था नियम के रूप में बुद्ध स्पष्टरूप से कर्म सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं । सुत्तनिपात में स्वयं बुद्ध कहते हैं, किसी का कर्म नष्ट नहीं होता । कर्ता उसे प्राप्त करता हो है । पापकर्म करनेवाला परलोक में अपने को दुःख में पड़ा पाता है । संसार कर्म से चलता है, प्रजा कर्म से चलती है । रथ का चक्र जिस प्रकार आणी से बँधा रहता है उसी प्रकार प्राणी कर्म से बँधे रहते हैं । बौद्ध मन्तव्य को आचार्य नरेन्द्रदेव निम्न शब्दों में प्रस्तुत करते हैं, जीव-लोक और भाजन-लोक ( विश्व ) की विचित्रता ईश्वरकृत नहीं है । कोई ईश्वर नहीं है जिसने बुद्धिपूर्वक इसकी रचना की हो । लोकवैचित्र्य कर्मज हैं, यह सत्त्वों के कर्म से उत्पन्न होता है । बौद्ध विचार में प्रकृति एवं स्वभाव को मात्र भौतिक जड़ जगत् का कारण माना गया है । बुद्ध स्पष्ट रूप से कर्मवाद को स्वीकार करते हैं । बुद्ध से शुभ माणवक ने प्रश्न किया था, 'हे गौतम, क्या हेतु है, क्या प्रत्यय है, कि मनुष्य होते हुए भी मनुष्य रूप वाले में हीनता और उत्तमता दिखाई पड़ती है ? हे गौतम, यहाँ मनुष्य अल्पायु देखने में आते हैं और दीर्घायु भी; बहुरोगी भी अल्परोगी भी; कुरूप भी रूपवान् भी; दरिद्र भी धनवान भी; निर्बुद्धि भी प्रज्ञावान् भो । हे गौतम, क्या कारण है कि यहाँ प्राणियों में इतनी हीनता और प्रणीतता (उत्तमता) दिखाई पड़ती है ? " भगवान् बुद्ध ने जो इसका उत्तर दिया है वह बौद्ध धर्म में कर्मवाद के स्थान को स्पष्ट कर देता है । वे कहते हैं, हे माणवक प्राणी कर्मस्वयं ( कर्म ही जिनका अपना ), कर्म - दायाद, कर्मयोनि, कर्मबन्धु और कर्म प्रतिशरण है । कर्म ही प्राणियों को इस हीनता और उत्तमता में विभक्त करता है । बौद्ध दर्शन में कर्म को चैत्तसिक प्रत्यय के रूप स्वीकार किया गया है और यह माना गया है कि कर्म के कारण ही आचार, विचार एवं स्वरूप की यह विविधता है । इस प्रकार बौद्ध धर्म ने कर्म को कारण मान कर प्राणियों की होनता एवं प्रणीतता का उत्तर तो बड़े ही स्पष्ट रूप में दिया है, फिर भी यह कर्म का नियम किस प्रकार अपना कार्य करता है, इसका काल-स्वभाव आदि से क्या सम्बन्ध है, इसके बारे में उसमें इतना अधिक विस्तृत विवेचन नहीं है जितना कि जैन दर्शन में है |
जैन दृष्टिकोण
जैन दर्शन में भी कारणता सम्बन्धी इन विविध सिद्धान्तों की समोक्षा की गयी । सूत्रकृतांग एवं उसके परवर्ती जैन साहित्य में इनमें से अधिकांश विचारणाओं की विस्तृत समीक्षा उपलब्ध होती है । यहाँ विस्तार में न जाकर उन समीक्षाओं की
१. अंगुत्तरनिकाय, ३।६१.
२. सुत्तनिपात वासेठसुत्त, ६०-६१.
३. बौद्ध धर्मदर्शन, पृ० २५०.
४. मज्झिमनिकाय, ३।४५.
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