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आत्मा की अमरता
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में जो नैसर्गिक वैषम्य है उसका कारण क्या है ? क्यों एक प्राणी सम्पन्न एवं प्रतिष्ठित कुल में जन्म लेता है अथवा जन्मना ऐन्द्रिक एवं बौद्धिक क्षमता से युक्त होता है और क्यों दूसरा दरिद्र एवं हीन कुल में जन्म लेता है और जन्मना होनेन्द्रिय एवं बौद्धिक दृष्टि से पिछड़ा हुआ होता है ? क्यों एक प्राणी को मनुष्य शरीर मिलता है और दूसरे को पशु शरीर मिलता है ? यदि इसका कारण ईश्वरेच्छा है तो ईश्वर अन्यायी सिद्ध होता है । दूसरे, व्यक्ति को अपनी अक्षमताओं और उनके कारण उत्पन्न अनैतिक कृत्यों के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकेगा । खानाबदोश जातियों में जन्म लेने वाला बालक संस्कारवश जो अनैतिक आचरण का मार्ग अपनाता है, उसका उत्तरदायित्त्व किस पर होगा ? वैयक्तिक विभिन्नताएँ ईश्वरेच्छा का परिणाम नहीं, वरन् व्यक्ति के अपने ही कृत्यों का परिणाम हैं। वर्तमान जीवन में जो भी क्षमता एवं अवसरों की सुविधा उसे अनुपलब्ध है और जिनके फलस्वरूप उसे नैतिक विकास का अवसर प्राप्त नहीं होता है उनका कारण भी वह स्वयं ही है और उसका उत्तरदायित्व भी उसी पर है ।
२.
नैतिक विकास केवल एक जन्म की साधना का परिणाम नहीं है, वरन् उसके पोछे जन्म-जन्मान्तर की साधना होती है । पुनर्जन्म का सिद्धान्त प्राणी को नैतिक विकास के हेतु अनन्त अवसर प्रदान करता है । ब्रेडले नैतिक पूर्णता की उपलब्धि को अनन्त प्रक्रिया मानते हैं यदि नैतिकता आत्मपूर्णता एवं आत्मसाक्षात्कार की दिशा में सतत् प्रक्रिया है तो फिर बिना पुनर्जन्म के इस विकास की दिशा में आगे कैसे बढ़ा जा सकता है ? गीता में भी नैतिक पूर्णता की उपलब्धि के लिए अनेक जन्मों की साधना आवश्यक मानी गयी है । डा० टॉटिया भी लिखते हैं कि 'यदि आध्यात्मिक पूर्णता (मुक्ति) एक तथ्य है तो उसके साक्षात्कार के लिए अनेक जन्म आवश्यक हैं ।'3
३. साथ ही आत्मा के बन्धन के कारण की व्याख्या के लिए भी पुनर्जन्म की धारणा को स्वीकार करना होगा, क्योंकि वर्तमान बन्धन की अवस्था का कारण भूतकालीन जीवन में ही खोजा जा सकता है ।
४. जो नैतिक दर्शन पुनर्जन्म को स्वीकार नहीं करते, वे व्यक्ति के साथ समुचित न्याय नहीं करते । अपराध के लिए दण्ड आवश्यक है, लेकिन इसका अर्थ यह तो नहीं कि विकास या सुधार का अवसर ही समाप्त कर दिया जाये । जैन नैतिकता पुनर्जन्म के सिद्धान्त को स्वीकार करके व्यक्ति को नैतिक विकास के अनेक अवसर प्रदान करती है तथा अपने को एक प्रगतिशील नैतिक दर्शन सिद्ध करती है । पुनर्जन्म की धारणा दण्ड के सुधारवादी सिद्धान्त का समर्थन करती है, जबकि पुनर्जन्म को नहीं माननेवाली नैतिक विचारणाएँ दण्ड के बदला लेने के सिद्धान्त का समर्थन करती हैं, जोकि वर्तमान युग में एक परम्परागत अनुचित धारणा है ।
१. एथिकल स्टडीज, पृ० ३१३.
२.
गीता, ६।४५.
३. स्टडीज इन जैन फिलासफी, पृ० २२१.
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