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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
पक्ष का या दूसरों के हित साधन को ही सदाचार की कसौटी नहीं माना जा सकता है । ऐसी अवस्थाएँ सम्भव है कि जब मेरे असत्य सम्भाषण एवं अनैतिक आचरण के द्वारा दूसरों का हितसाधन होता हो, अथवा कम से कम किसी का अहित न होता हो; किन्तु क्या ऐसे आचरण को सदाचार कहने का साहस कर सकेंगे। क्या वेश्यावृत्ति के माध्यम स अपार धनराशि को एकत्रित कर उसे लोकहित के लिए व्यय करने मात्र से कोई स्त्री सदाचारी की कोटि में आ सकेगी। अथवा यौन वासना की संतुष्टि के वे रूप जिसमें किसी भी दूसरे प्राणी की हिंसा नहीं होती है, दुराचार की कोटि में नहीं आयेंगे । सूत्रकृतांग में सदाचारिता का एक ऐसा ही दावा अन्य तीथियों द्वारा प्रस्तुत भी किया गया था, जिसे महावीर ने अमान्य कर दिया था। क्या हम उस व्यक्ति को जो डाके डालकर उस सम्पत्ति को गरीबों में वितरित कर देता है, सदाचारी मान सकेंगे । एक चोर और एक सन्त दोनों ही व्यक्ति को सम्पत्ति के पाश से मुक्त करते हैं फिर भो दोनों समान कोटि के नहीं माने जाते । वस्तुतः सदाचार या दुराचार का निर्णय केवल एक ही आधार पर नहीं होता है। उसमें आचरण का प्रेरक आन्तरिक पक्ष अर्थात् उसकी मनोदशा और आचरण का बाह्य परिणाम अर्थात् सामाजिक जीवन पर उसका प्रभाव दोनों ही विचारणीय है । आचार की शुभाशुभता विचार पर, और विचार या मनोभावों की शुभाशुभता स्वयं व्यवहार पर निर्भर करती है । सदाचार या दुराचार का मानदण्ड तो ऐसा होना चाहिए जो इन दोनों को समाविष्ट कर सके।
साधारणतया जैन धर्म सदाचार का मानदण्ड अहिंसा को स्वीकार करता है, किन्तु यहाँ हमें यह विचार करना होगा कि क्या केवल किसी को दुःख या पीड़ा नहीं देना या किसी की हत्या नहीं करना मात्र ही अहिंसा है ? यदि अहिंसा की मात्र इतनी ही व्याख्या है तो फिर यह सदाचार और दुराचार का मानदण्ड नहीं बन सकती। जब कि जन आचार्यों ने सदैव ही उसे सदाचार का एकमात्र आधार प्रस्तुत किया है । आचार्य अमृतचन्द्र ने कहा है कि अनृतवचन, स्तेय, मैथुन, परिग्रह आदि पापों के जो भिन्न-भिन्न नाम दिये गये वे तो केवल शिष्यबोध के लिए हैं । मूलतः तो वे सब हिंसा ही है। वस्तुतः जैन आचार्यों ने अहिंसा को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में विचारा है । वह आन्तरिक भी है और बाह्य भी। उसके सम्बन्ध व्यक्ति स भी हैं और समाज से भी । इसे जैम परम्परा में स्व की हिंसा और पर की हिंसा ऐसे दो भागों में बाँटा गया है । जब वह हमारे स्व स्वरूप या स्वभाव दशा का घात करती है तो स्व-हिंसा है और जब वह दूसरों के हितों को चोट पहुँचाती है वह पर की हिंसा है। स्व की हिंसा के रूप में वह आन्तरिक पाप है तो पर की हिंसा के रूप में वह सामाजिक पाप । किन्तु उसके ये दोनों रूप दुराचार की कोटि में ही आते हैं । अतः अपने इस व्यापक अर्थ में हिंसा को दुराचार की और अहिंसा को सदाचार को कसौटी माना जा सकता है।
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